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________________ ३४. उपसर्ग और समाधि छिन्नावाएसु पन्थेसु आउरे सुपिवासिए । परिसुक्क मुहेऽदीणे तं तितिक्खे परीसहं । । (उ०२ : ४-५) निर्जन पथ में अत्यन्त तृषा से आतुर - व्याकुल हो जाने और जिह्वा के सूख जाने पर भी भिक्षु प्यास परीषह को अदीन मन से सहन करे। ऐसी तृषा से स्पष्ट होने पर भी अनाचार से घृणा करनेवाला लज्जाशील संयत भिक्षु शीतोदकका सेवन न करे । विकृत - अचित्त - जल की गवेषणा करे । ३-४. शीत-उष्ण परीषह ४. न मे निवारणं अत्थि छवित्ताणं न विज्जई । अहं तु अग्गिं सेवामि इइ भिक्खू न चिंतए । । उसिण-परियावेणं परिदाहेण तज्जिए । घिसु वा परियावेणं सायं नो परिदेव । । उहाहितत्ते मेहावी सिणाणं नो वि पत्थए । गायं नो परिसिंचेज्जा न वीएज्जा य अप्पयं । । २८७ (उ० २ : ७-६) शीत निवारण के लिए मेरे घरादि नहीं तथा शरीर के त्राण के लिए वस्त्रादि नहीं, अतः मैं अग्नि का सेवन करूँ - भिक्षु ऐसा कभी भी न सोचे । ग्रीष्म ऋतु, बालू आदि उष्ण पदार्थों के परिताप, अन्तरदाह और सूर्य के आताप द्वारा तर्जित साधु, मुझे वायु आदि का सुख कब होगा, ऐसी इच्छा न करे । गर्मी से परितप्त होने पर भी मेधावी भिक्षु स्नान की इच्छा न करे। शरीर को जलादि से न सींचे - और न पंखा आदि से शरीर पर हवा ले I ५. दंश - मशक परीषह ५. पुट्ठो य दंसमसएहिं समरेव महामुणी । नागो संगाम - सीसे वा सूरो अभिहणे परं । । न संतसे न वारेज्जा मणं पि न पओसए । उवेहे न हणे पाणे भुंजंते मंस - सोणियं । । ( उ० २ : १०-११ ) डाँस और मच्छरों द्वारा स्पृष्ट होने पीड़ित किए जाने- - पर भी महामुनि समभाव रखे । संग्राम के मोर्चे पर जिस तरह नाग शत्रु का हनन करता है, उसी तरह शूरवीर साधु राग-द्वेषरूपी शत्रु का हनन करे । --- मुनि डाँस, मच्छर आदि को भय उत्पन्न न करे, उन्हें दूर न हटावे और न मन में भी उनके प्रति द्वेष-भाव आने दे। मांस और शोणित को खा रहे हों तो भी उपेक्षा करे और उन्हें न मारे ।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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