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उपसर्ग और समाधि
१. परीषह १. छुहा तण्हा य सीउण्हं दंसमसगवेयणा।
अक्कोसा दुक्ख सेज्जा य तणफासा जल्लमेव य ।। तालणा तज्जणा चेव वहबंधपरीसहा। दुक्खं भिक्खायरिया जायणा य अलाभया।। (उ० १६ : ३१-३२)
क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, डाँस और मच्छर का कष्ट, आक्रोश-कटुवचन, दुःखदशय्या, तृणस्पर्श, मैल, ताड़ना, तर्जना, वध, बन्धन, भिक्षाचर्या, याचना और अलाभ-ये सब परीषह दुःसह हैं।
१. क्षुधा परीषह २. दिगिंछा-परिगए देहे तवस्सी भिक्खु थामवं ।
न छिंदे न छिंदावए न पए न पयावए।। काली-पढ्ग-संकासे किसे धमणि-संतए। मायन्ने असण-पाणस्स अदीण-मणसो चरे।। (उ० २ : २-३)
शरीर में क्षुधा व्याप्त हो जाय, बाहु, जंघा आदि अंग काक-जंघा नामक तृण की तरह पतले-कृश-हो जाएँ और शरीर नसों से व्याप्त दीखने लगे तो भी आहार-पान के प्रमाण को जाननेवाला भिक्षु मनोबल रखे और अदीन भाव से संयम का पालन करे। वह स्वयं फलादि का छेदन न करे, न दूसरों से करावे । न स्वयं अन्नादि पकावे, न दूसरों से पकवावे।
२. तृषापरीषह ३. तओ पुट्ठो पिवासाए दोगुंछी लज्ज.संजए।
सोओदगं न सेविज्जा वियडस्सेसणं चरे ।। १. परीषह २२ माने जाने जाते हैं। देखिये उत्त० अ० २। निम्न परीषह उपर्युक्त गाथाओं में नहीं आये
हैं-अचेलक परीषह, अरति परीषह, स्त्री परीषह, नैषेधिकी परीषह, रोग परीषह, सत्कार पुरस्कार परीषह, प्रज्ञापरीषह, अज्ञान परीषह और दर्शन परीषह। इन गाथाओं में आए ताड़न, तर्जन और बन्धन नामक परीषह उत्त० अ०२ में बताये गये २२ परीषह के उपरांत हैं। वैसे वे वध-परीषह के अन्तर्गत आ सकते हैं।