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________________ २८५ ३३. विनय-प्रतिपत्ति संभव है कदाचित् अग्नि न जलाए, संभव है आशीविष सर्प कुपित होने पर भी न खाए और यह भी संभव है कि हलाहल विष भी न मारे, परन्तु गुरु की अवहेलना से मोक्ष संभव नहीं है। ६. जो पव्वगं सिरसा भुत्तुमिचछे सुत्तं व सीहं पडिबोहएज्जा। जो वा दए सत्तअग्गे पहारं एसोवमासायणया गुरूणं ।। (द० ६ (१) : ८) कोई शिर से पर्वत का भेदन करने की इच्छा करता है, सोए हुए सिंह को जगाता है और भाले की नोक पर प्रहार करता है, यही उपमा गुरु की आशातना करनेवाले के प्रति लागू होती है। ७. सिया ह सीसेण गिरि पि भिंदे सिया ह सीहो कविओ न भक्खे। सिया न भिंदेज्ज व सत्तिअग्गं न यावि मोक्खो गुरुहीलणाए।।। (द० ६ (१) : ६) संभव है,, कदाचित् सिर से पर्वत को भी भेद डाले; संभव है, सिंह कुपित होने पर भी न खाए और यह भी संभव है कि भाले की नोक भी भेदन न करे, पर गुरु की अवहेलना से मोक्ष संभव नहीं है।। ८. आयरिय पाया पुण अप्पसन्ना अवोहिआसायण नत्थि मोक्खो। तम्हा अणाबाह सुहाभिकखी गुरुप्पसायाभिमुहो रमेज्जा।। (द० ६ (१) : १०) आचार्यपाद के अप्रसन्न होने पर बोधि.लाभ नहीं होता-गुरु की आशातना से मोक्ष नहीं मिलता, इसलिए मोक्ष-सुख चाहनेवाला मुनि गुरु कृपा के लिए तत्पर रहे। ६. महागरा आयरिया महेसी समाहिजोगे सुयसीलबुद्धिए। संपाविउकामे अणुत्तराई आराहए तोसए धम्मकामी।। (द० ६ (१) : १६) अनुत्तर ज्ञान आदि गुणों की सम्प्राप्ति की इच्छा रखनेवाला मुनि निर्जरा का अर्थी होकर समाधियोग, श्रुत, शील और बुद्धि के महान् आकर, मोक्ष की एषणा करनेवाले आचार्य की आराधना करे और उन्हें प्रसन्न करे।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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