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________________ २८४ महावीर वाणी ४. आशातना और दुष्परिणाम १. जे यावि मंदि त्ति गुरुं विइत्ता डहरे इमे अप्पसुए त्ति नच्चा। हीलंति मिच्छं पडिवज्जमाणा करेंति आसायण ते गुरूणं ।। (द० ६ (१) : २) जो मुनि गुरु को-मंद (बुद्धि) है, यह अल्पवयसक और अल्पश्रुत है-ऐसा जानकर उसके उपदेश को मिथ्या मानते हुए उसकी अवहेलना करते हैं, वे गुरु की आशा-तना करते हैं। २. जे यावि नागं डहरं ति नच्चा आसायए से अहियाय होइ। एवायरियं पि हु हीलयंतो नियच्छई जाइपहं खु मंदे ।। ___ (द० ६ (१) : ४) जो कोई-यह सर्प छोटा है-ऐसा जजानकर उसकी आशातना (कदर्थना) करता है, वह (सर्प) उसके अहित के लिए होता है। इसी तरह अल्पवयस्क आचार्य की भी अवहेलना करनेवाला मंद संसार में परिभ्रमण करता है। ३. आसीविसो यावि परं सुरुट्ठो किं जीवनासाओ परं नु कुज्जा। आयरियपाया पुण अप्पसन्ना अबोहिआसायण नत्थि मोक्खो।। (द० ६ (१) : ५) आशीविष सर्प अत्यन्त क्रुद्ध होने पर भी जीवन-नाश से अधिक क्या (अहित) कर सकता है ? परन्तु आचार्यपाद अप्रसन्न होने पर अबोधि करते हैं। अतः गुरु की आशातना से मोक्ष नहीं मिलता। ४. जो पावगं जलियमवक्कमेजा आसीविसं वा वि हु कोवएज्जा । ___ जो वा विसं खायइ जीवियट्ठी एसोवमासायणया गुरूणं ।। __ (द० ६ (१) : ६) कोई जलती अग्नि को लाँघता है, आशीविष सर्प को कुपित करता है और जीवित रहने की इच्छा से विष खाता है, गुरु की आशातना इनके समान है-ये जिस प्रकार हित के लिए नहीं होते, उसी प्रकार गुरु की आशातना हित के लिए नहीं होती। ५. सिया हु वे पावय नो उहेज्जा आसीविसो वा कुविओ न भक्खे। सियाविसं हालहलं न मारे न यावि मोक्खो गुरुहीलणाए ।। (द० ६ (१) : ७)
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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