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________________ ३३. विनय-प्रतिपत्ति २८३ जो आचार के लिए विनय का प्रयोग करता है, जो आचार्य को सुनने की इच्छा रखता हुआ उसके वाक्य को ग्रहण कर उपदेश के अनुकूल आचरण करता है और जो गुरु की आशातना नहीं करता, वह पूज्य है । ३. राइणिएसु विणयं पउंजे डहरा वि य जे परियायजेट्ठा । नियत्तणे वट्टइ सच्चवाई ओवायवं वक्ककरे स पुज्जो ।। जो अल्पवयस्क होने पर भी दीक्षा - काल में ज्येष्ठ है- उन पूजनीय साधुओं के प्रति विनय का प्रयोग करता हैं, जो नम्र व्यवहार करता है, जो सत्यवादी है, जो गुरु के समीप रहनेवाला है और जो गुरु की आज्ञा का पालन करता है, वह पूज्य है । ४. अवण्णवायं च परम्मुहस्स पच्चक्खओ पडिणीयं च भासं । ओहारिणिं अप्पियकारिणि च भासं न भासेज्ज सया स पुज्जो ।। (द० ६ (३) : १) (द० ६ (३) : ३) जो पीछे से अवर्णवाद नहीं बोलता, जो सामने विरोधी वचन नहीं कहता, जो निश्चयकारिणी और अप्रियकारिणी भाषा नहीं बोलता, वह पूज्य है। ५. जे माणिया सययं माणयंति जत्तेण कन्नं व निवेशयंति I ते माणए माणरिहे तवस्सी जिइंदिए सच्चरए स पुज्जो ।। ६. गुरुमिह सययं पडियरिय मुणी जिणमयनिउणे धुणिय रयमलं पुरेकडं पुरेकडं भासुरमउलं (द० ६ (३) : १३) अभ्युत्थान आदि के द्वारा सम्मानित किये जाने पर जो शिष्यों को सतत सम्मानित करते हैं - श्रुत ग्रहण के लिए प्रेरित करते हैं, पिता जैसे अपनी कन्या को यत्नपूर्वक योग्य कुल में स्थापित करता है, वैसे ही जो आचार्य अपने शिष्यों को योग्य मार्ग में स्थापित करते हैं, उन माननीय, तपस्वी, जितेन्द्रिय और सत्यरत आचार्य का जो सम्मान करता है, वह पूज्य है । अभिगमकुसले । गय ।। गई (द० (३) : १५) इस लोक में गुरु की सतत सेवा कर जिनमत - निपुण (आगम- निपुण) और अभिगम विनय-प्रतिपत्ति) में कुशल शिष्य पूर्व संचित रज और मल को कम्पित कर प्रकाशयुक्त अनुपम गति को प्राप्त होता है ।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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