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________________ २८२ महावीर वाणी २०. थंभा व कोहा व मयप्पमाया गुरुस्सगासे विणयं न सिक्खे। सो चेव उ तस्स अभूइभावो फलं व कीयस्स वहाय होइ।। (द० ६ (१) : १) गर्व, क्रोध, माया और प्रमाद के कारण जो गुरु के पास रहकर विनय नहीं सीखता, उसकी यह कमी उसी के पतन के लिए होती है, जिस तरह बाँस का फल उसी के नाश के लिए होता है। २१. जे यावि चंडे मइइड्ढिगारवे पिसुणे नरे साहस हीणपेसणे। अदिठ्ठधम्मे विणए अकोविए असंविभागी न हु तस्स मोक्खो।। (द० ६ (२) : २२) जो नर चण्ड है, जिसे बुद्धि और ऋद्धि का गर्व है, जो पिशुन है, जो साहसिक है, जो गुरु की आज्ञा का यथासमय पालन नहीं करता, जो अदृष्ट (अज्ञात) धर्मा है, जो विनय में अकोविद है, जो असंविभागी है उसे मोक्ष प्राप्त नहीं होता। २२. निद्देसवत्ती पुण जे गुरूणं सुयत्थधम्मा विणयम्मि कोविया । तरित्तु ते ओहमिणं दुरुत्तरं खवित्तु कम्मं गइमुत्तमं गय ।। (द० ६ (२) : २३) और जो गुरु के आज्ञाकारी हैं, जो गीतार्थ हैं, जो विनय में कोविद हैं, वे इस दुस्तर संसार-समुद्र को तिर कर कर्मों का क्षय कर उत्तम गति को प्राप्त होते हैं। ३. गुरु-विनय और पूज्यता १. आयरियं अग्गिमिवाहियग्गी सुस्सूसमाणो पडिजागरेज्जा। आलोइयं इंगिवमेव नच्चा जो छंदमाराहयइ स पुज्जो।। (द० ६, (३) : १) जैसे अहिताग्नि अग्नि की शुश्रूषा करता हुआ जागरूक रहता है, वैसे ही जो आचार्य की शुश्रूषा करता हुआ जागरूक रहता है तथा जो आचार्य के आलोकित और इंगित को जानकर उसके अभिप्राय की आराधना करता है, वह पूज्य है। २. आयारमट्ठा विणयं पउंजे सुस्सूसमाणो परिगिज्झ वक्कं । जहोवइटें अभिकंखमाणो गुरुं तु नासाययई स पुज्जो ।। (द० ६ (३) : २)
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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