________________
३३. विनय-प्रतिपत्ति
२८१ १३. नीयं सेज्ज गई ठाण नीयं च आसणाणि य।
नीयं च पाए वंदेज्जा नीयं कुज्जा य अंजलिं ।। (द० ६ (२) : १७)
विनयी शिष्य अपनी शय्या, स्थान और आसन गुरु से नीचे रखे । चलते समय गुरु से पीछे, धीमी चाल से चले। नीचा झुककर पैरों में वंदना करे और नीचा होकर अञ्जलि करे। १४. विणयं पि जो उवाएणं चोइयो कुप्पई नरो।
दिलं सो सिरिमेज्जंतिं दंडेण पडिसेहए।। (द० ६ (२) : ४)
मधुरतापूर्वक विविध उपाय से विनय में प्रेरित किये जाने पर जो मनुष्य कुपित हो जाता है, वह घर आती हुई दिव्य लक्ष्मी को मानो दण्डों की मार से भगाता है। १५. संघठ्ठइत्ता काएणं तहा उवहिणामवि।
खमेह अवराहं मे वएज्ज न पुणो त्ति य।। (द० ६ (२) : १८) - अपनी काया से अथवा उपधि से या और किसी प्रकार से आचार्य का स्पर्श हो जाने पर शिष्य इस प्रकार कहे-"आप मेरा अपराध क्षमा करें, मैं पुनः ऐसा नहीं करूँगा।" १६. जं मे बुद्धाणुसासन्ति सीएण फरुसेण वा।
मम लाभो त्ति पेहाए पयओ तं पडिस्सुणे।। (उ० १ : २७)
ये जो बुद्ध पुरुष मुझे कोमल अथवा कठोर वाक्यों से अनुशासित करते हैं-यह मेरे लाभ के लिए ही है-इस प्रकार से विचार करता हुआ मुमुक्षु पुरुष प्रयत्नपूर्वक उनकी शिक्षा को ग्रहण करे। १७. न कोवए आयरियं अप्पाणं पि न कोवए।
बुद्धोवघाई न सिया न सिया तोत्तगवेसए।। (उ० १ : ४०)
शिष्य आचार्य को कुपित न करे, न अपने को कुपित करे। ज्ञानी पुरुषों की घात करनेवाला न हो और न केवल छिद्र देखनेवाला ही हो। १८. आयरियं कवियं नच्चा पत्तिएण पसायए।
विज्झवेज्ज पंचलिउडो वएज्ज न पुणो त्ति य।। (उ० १ : ४१)
आचार्य को कुपित हुआ जानकर प्रतीतिकारक वचनों से उन्हें प्रसन्न कर उनकी क्रोधाग्नि को शांत करे और दोनों हाथ जोड़कर कहे कि मैं आगे ऐसा न करूँगा। १६. जे आयरियउवज्झायाणं सुस्सूसावयणंकरा।
तेसिं सिक्खा पवड्ढंति जलसिता इव पावया ।। (द० ६ (२) : १२)
जो शिष्य आचार्य और उपाध्याय की सेवा करता है और उसकी आज्ञानुसार चलता है, उसकी शिक्षा उसी प्रकार बढ़ती है, जिस प्रकार जल से सींचे हुए वृक्ष ।