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७. आयरिएहिं वाहिंतो तुसिणीओ न कयाइ वि । पसाय पेही नियागट्ठी उवचिट्ठे गुरुं सया ।।
( उ०१:२० )
आचार्यों के द्वारा बुलाया हुआ शिष्य कदाचित् भी मौन का अवलम्बन न करे; किन्तु गुरु- कृपा और मोक्ष का अभिलाषी शिष्य सदा उनके समीप रहे।
८. आसण- गओ न पुच्छेज्जा नेव सेज्जा-गओ कया । आगम्मुक्कुडुओ सन्तो पुच्छेज्जा पंजलीउडो ।।
साधु गुरु के आसन पर बैठे-बैठे कदाचित् भी कोई बात न पूछे तथा शय्या पर बैठा हुआ भी कभी न पूछे। समीप आ, उत्कुटुक आसन में हो बद्धांजलिपूर्वक जो पूछना हो सो पूछे।
६. न पक्खओ न पुरओ नेव किच्चाण पिट्ठओ |
न जुंजे ऊरुणा ऊरुं सयणे नो पडिस्सुणे' ।।
महावीर वाणी
११. आसणे उवचिट्ठेज्जा अणुच्चे अकुए थिरे ।
अप्पुट्ठाई निरुट्ठाई निसीएज्जप्पकुक्कुए ।।
( उ०१ : २२ )
आचार्यों के बराबर न बैठे, आगे न बैठे, पीछे न बैठे, उनकी उरु से उरु सटाकर न बैठें, और शय्या पर बैठे-बैठे ही उनके वचन को ग्रहण न करे-न सुनें । १०. नेव पल्हत्थियं कुज्जा पक्खपिंण्डं व संजए ।
पाए पसारिए वावि न चिट्ठे गुरुणंतिए । ।
१.
( उ०१:१६)
विनीत शिष्य गुरु के समीप पल्हत्थी मार कर न बैठे, अपनी दोनों भुजाओं को जांघों पर रखकर न बैठे, उनके समाने पाँव पसार कर न बैठे तथा और भी अविनयसूचक आस-नादि से गुरु के निकट न बैठे ।
(उ० १ :
मिलावें द० ८ । ४५ ।
१८)
( उ०१ : ३०)
शिष्य चांचल्यरहित होकर ऐसे आसन पर बैठे जो गुरु से ऊँचा न हो, स्थिर हो, शब्द न करता हो और उक्त प्रकार के आसन पर बैठा हुआ बिना प्रयोजन न उठे तथा प्रयोजन होने पर भी थोड़ा उठे । चपलता न करे।
न पक्खओ न पुरओ नेव किच्चाण पिट्ठओ ।
न य उरुं समासेज्जा चिट्ठेज्जा गुरुणंतिए । ।
१२. हत्थं पायं च कायं च पणिहाय जिइंदिए ।
अल्लीणगुत्तो निसिए सगासे गुरुणो मुणी ।।
(द०८:४४ )
जितेन्द्रिय मुनि गुरु के समक्ष हाथ, पाँव और शरीर को संयमित कर, आलीनगुप्त
हो बैठे।