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________________ ३३. विनय-प्रतिपत्ति २. विनय-संहिता १. सुस्सूसमाणो उवासेज्जा सुप्पण्णं सुतवस्सियं । वीरा जे अत्तपणेसी धितिमंता जिइंदिया । । (सू० १, ६ : ३३) मुमुक्षु, पुरुष, प्रज्ञावान, तपस्वी, पुरुषार्थी, आत्म-ज्ञानी, धृतिमान और जितेन्द्रिय गुरु की शुश्रूषापूर्वक उपासना - सेवा करे । २. जहाहियग्गी जलणं नमसे नाणाहुईमंतपयाभिसित्तं । एवायरियं उवचिट्ठएज्जा अमंतनाणोवगओ वि संतो ।। २७६ (द० ६ अग्निहोत्री ब्राह्मण जिस तरह नाना प्रकार की आहुतियों और मंत्र - पदों से अभिषिक्त अग्नि को नमस्कार करता है, उसी तरह अनन्त ज्ञानी होने पर भी शिष्य गुरु की विनय-पूर्वक सेवा करे । ( १ ) : ११) ३. जस्संतिए धम्मपयाइ सिक्खे तस्संतिए वेणइयं पउंजे 1 सक्कारए सिरसा पंजलीओ कायग्गिरा भो मणसा य निच्चं । । (द० ६ (१) : १२) ५. वित्ते अचोइए निच्चं खिप्पं हवइ सुचोइए | जहोवइट्ठे सुकयं किच्चाई कुव्वई सया ।। जिसके समीप धर्म-पदों को सीखता हो उसके प्रति विनय रखना चाहिए तथा हमेशा सिर का नमा, हाथ जोड़, मन-वचन काया से उसका सत्कार करना चाहिए। ४. मणोगयं वक्कगयं जाणित्तायरियस्स उ। तं परिगिज्झ वायाए कम्मुणा उववायए ।। ( उ०१ : ४३ ) आचार्य के मन, वचन ( और काया) गत भावों को समझकर, वचन द्वारा उन्हें स्वीकार कर शरीर द्वारा उन्हें पूरा करना चाहिए । ६. आलवन्ते लवन्ते वा न निसीएज्ज कयाइ वि चइऊणमासणं धीरो जओ जत्तं पडिस्सुणे ।। ( उ०१ : ४४) विनय से प्रख्यात शिष्य बिना प्रेरणा किया हुआ ही नित्य प्रेरणा किये हुए की तरह शीघ्र कार्यकारी होता है और गुरू के उपदेश के अनुसार ही सदा कार्यों को अच्छी तरह करता है । ( उ० १ : २१) गुरु एक बार बुलाए अथवा बार-बार, शिष्य कदाचित भी बैठा न रहे, किन्तु धीर शिष्य आसन छोड़कर यत्न के साथ गुरु के वचन को सुने ।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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