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________________ २७८ महावीर वाणी ५. सग-पर-समयविदण्हू आगमदहेदूहिं चावि जाणित्ता। सुसमत्था जिणवयणे विणये सत्ताणुरूवेण।। (दश० भ० ६ : २) आचार्य स्व-दर्शन एवं पर-दर्शन के जानकार, आगम और युक्तियों से पदार्थों को जाननेवाले, जिन भगवान के द्वारा कहे गए तत्त्वों का निरूपण करने में पूरे समर्थ तथा प्राणियों की शक्ति के अनुसार विनय की प्ररूपणा करने वाले होते हैं। ६. बाल-गुरु-वुड्ढ-सेहे गिलाणथेरे य खमणसंजुत्ता। वट्टावयगा अण्णे दुस्सीले चावि जाणित्ता।। (दश० भ० ६ : ३) बालक, गुरु, वृद्ध, शैक्ष्य, रोगी और स्थविर मुनियों के विषय में आचार्य क्षमाशील होते हैं। वे अन्य शिष्यों को दुःशील जानकर उन्हें सन्मार्ग में लगाते हैं। ७. उत्तमखमाए पुढवी पसण्णभावेण अच्छजलसरिसा। कम्मिंधणदहणादो अगणी वाऊ असंगादो।। ___ (दश० भ० ६ : ५) उत्तम क्षमा में वे पृथ्वी के समान क्षमाशील होते हैं। निर्मल परिणामों के कारण स्वच्छ जल के समान होते हैं। कर्मरूपी ईंधन को जलाने के कारण अग्नि के तुल्य है और सब प्रकार के परिग्रह से रहित होने से वायु की तरह निस्संग होते हैं। ८. अविसुद्धलेस्सरहिया विसुद्धलेस्साहि परिणदा सुद्धा। रुद्दट्टे पुण चत्ता धम्मे सुक्के य संजुात्त।। (दश० भ० ६ : ८) आचार्य कृष्ण, नील और कापोत नामक अप्रशस्त लेश्याओ से रहित होते हैं और पीत, पद्म, शुक्ल नामक विशुद्ध लेश्याओं से युक्त, आर्त और रौद्र ध्यान से त्यागी और धर्म तथा शुक्ल ध्यान से युक्त होते हैं। ६. गयणमिव णिरुवलेवा अक्खोहा सायरु ब्व मुणिवसहा। एरिसगुणणिलयाणं पायं पणमामि सुद्धमणो।। (दश० भ०६:६) मुनियों में श्रेष्ठ वे आचार्य आकाश की तरह निर्लेप और सागर की तरह क्षोभरहित गम्भीर होते हैं। मैं शुद्ध मन से इस प्रकार के गुणों के घर आचार्य परमेष्ठी के चरणों में नमस्कार करता हूँ।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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