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________________ : ३३ : विनय-प्रतिपत्ति १. आचार्य सुश्रूषा १. लज्जा दया संजम बंभचेरं कल्लाणभागिस्स विसोहिठाणं । जे मे गुरू सययमणुसासयंति ते हं गुरू सययं पूययामि । । (द० ६ (१) : १३) जो लज्जा, दया, संयम और ब्रह्मचर्य कल्याणभागी साधु के लिए विशाधिस्थल हैं। गुरु मुझे उनकी सतत शिक्षा देते हैं, उनकी मैं सतत पूजा करता हूँ । २. जहा निसंते तवणच्चिमाली पभासई केवलभारह तु । एवायरिओ सुयसीलबुद्धिए विरायई सुरमज्झे व इंदो ।। (द० ६ ( १ ) : १४) जैसे दिन में प्रदीप्त हुआ सूर्य सम्पूर्ण भारत (भारत - क्षेत्र) को प्रकाशित करता है, वैसे ही श्रुत, शील और बुद्धि से सम्पन्न आचार्य विश्व को प्रकाशित करता है और जिस प्रकार देवताओं के बीच इन्द्र शोभित होता है, उसी प्रकार भिक्षुओं के बीच आचार्य सुशोभित होता है। ३. जहा ससी कोमुईजोगजुत्तो. नक्खत्ततारागणपरिवुडप्पा | खे सोहई विमले अब्भमुक्के एवं गणी सोहइ भिक्खुमज्झे । । (द० ६ (१) : १५) जिस प्रकार मेघयुक्त विमल आकाश में नक्षत्र और तारागण से परिवृत, कार्तिकपूर्णिमा में उदित चन्द्रमा शोभित होता है, उसी प्रकार भिक्षुओं के बीच गणी (आचार्य) शोभित होता है । ४. सोच्चाण मेहावी सुभासियाई सुस्सूसए आयरियप्पमत्तो । आराहइत्ताण गुणे अणेगे से पावई सिद्धिमणुत्तरं । । (द० ६ ( १ ) : १७) मेघावी मुनि इन सुभाषितों को सुनकर अप्रमत्त रहता हुआ आचार्य की शुश्रूषा करे । इस प्रकार वह अनेक गुणों की आराधना कर अनुत्तर सिद्धि को प्राप्त करता है ।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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