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________________ महावीर वाणी यदि श्रमण पर - पदार्थों में मोह नहीं करता, राग नहीं करता और न द्वेष करता हे, तो वह निश्चिय रूप से अनेक कर्मों का क्षय करता है। २७६ १०. उपरदपावो पुरिसो समभावो धम्मिगेसु सव्वेसु । गुणसमिदिदोवसेवी हवदि स भागी सुमग्गस्स ।। जो पुरुष पाप से विरत है, सब धार्मिकों में समभाव रखता है का सेवक है, वह सुमार्ग का - मोक्ष मार्ग का भागी होता हैं ११. गुणदोधिगस्स विणयं पड़िच्छगो जो दु होज्जं गुणधरो जदि स होदि (प्रव० ३ : ५६) और गुणों के समूह होमि समणोत्ति । अणंतसंसारी ।। (प्रव० ३ : ६६ ) जो स्वयं गुणों से हीन होता हुआ भी 'मैं भी श्रमण हूँ' इस अभिमान से गुणों अधिक अन्य तपस्वियों से अपना विनय कराना चाहता है वह अनन्त सागर में भ्रमण करता है। १२. अधिगगुणा सामण्णे वट्टति गुणाधरेहिं किरियासु । जदि ते मिच्छपउत्ता हवंति पब्भट्टचारित्ता ।। (प्रव० ३ : ६७) चरित्र से अधिक गुणवाले श्रमण यदि गुणहीन श्रमणों के साथ बन्दना आदि क्रियाओं में प्रवृत्ति करते हैं, तो वे मिथ्यात्व से युक्त होते हुए चरित्रभ्रष्ट हो जाते हैं। १३. णिच्छिदसुत्तत्थपदो समिदकसाओ तओधिगो चावि । लोगिगजणसंसग्गं ण चयदि जदि संजदो ण हवदि । । (प्रव० ३ : ६८) आत्मा आदि पदार्थों का कथन करनेवाले सूत्रार्थ पदों का ज्ञाता है और जिसका क्रोधादि कषाय शांत है तथा जो विशिष्ट तपस्वी भी है, फिर भी यदि यह लौकिक जनों की संगति नहीं छोड़ता है तो वह संयमी नहीं हो सकता । १४. णिग्गंथो पव्वयिदो वट्टदि जदि एहिगेहि कम्मेहिं । सो लोगिगोत्ति भणिदो संजमतवसंजुदो चावि । । ( प्रव० ३ : ६६ ) निर्ग्रन्थ और प्रव्रजित पुरुष संयम और तप से युक्त होने पर भी यदि इस लोकसंबंधी कामों को करता है, तो उसे लौकिक कहा है। १५. तम्हा समं गुणादो समणो समणं गुणेहिं वा अहियं । अधिवसदु तम्हि णिच्चं इच्छदि जदि दुक्खपरिमोक्खं । । (प्रव० ३ : ७०) अतः यदि श्रमण दुःख से छूटना चाहता है तो उसे सदा अपने समान गुणवाले अथवा अपने से अधिक गुणवाले श्रमण के समीप रहना चाहिए ।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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