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३२. श्रामण्य और प्रव्रज्या ३७. वीसमंतो इमं चिंते हियमठें लाभमट्ठिओ।
जइ मे अणुग्गहं कुज्जा साहू होज्जामि तारिओ।। (द० ५ (१) : ६४)
निर्जरारूपी लाभ का इच्छुक साधु विश्राम करता हुआ अपने कल्याण के लिए इस प्रकार चिंतन करे कि यदि कोई साधु मुझ पर अनुग्रह करे-मेरे आहार में से कुछ आहार ग्रहण करे तो मैं धन्य हो जाऊं-मानें कि उन्होंने मुझे संसार-समुद्र से पार कर
दिया।
३८. साहवो तो चियत्तेणं निमंतेज्ज जहक्कम।
जेइ तत्थ केइ इच्छेज्जा तेहिं सद्धिं तु भुंजए।। (द० ५ (१) : ६५)
इस प्रकार विचार कर मुनि सब साधुओं को प्रीतिपूर्वक यथाक्रम से निमंत्रित करे। यदि उनमें से कोई साधु आहार करना चाहे तो उनके साथ आहार करे। ३६. अह कोइ न इच्छेज्जा तओ भुंजेज्ज एक्कओ। ... आलोए भायणे साहू जयं अप्परिसाडयं ।। (द० ५ (१) : ६६)
इस प्रकार निमंत्रित करने पर यदि कोई साधु आहार लेना न चाहे तो फिर वह साधु अकेला ही चौड़े मुखवाले प्रकाशमय पात्र में नीचे नहीं गिराता हुआ यतनापूर्वक आहार करे। ४०. तित्तगं व कडुयं व कसायं अंबिलं व महुरं लवणं वा। एय लद्धमन्नट्ठ-पउत्तं महु-घयं व भुंजेज्ज संजए।।
(द० ५ (१) : ६७) गृहस्थ के लिए बना हुआ तथा शास्त्रोक्त विधि से प्राप्त वह आहार तिक्त या कडुवा, कसैला या खट्टा, मीठा या नमकीन-चाहे जैसा भी हो, साधु उस को मधुघृत की तरह प्रसन्नतापूर्वक खाए। ४१. अलोले न रसे गिद्धे जिब्भादन्ते अमुच्छिए।
न रसट्ठाए भुंजिज्जा जवणट्ठाए महामुणी।। (उ० ३५ : १७)
लोलुपतारहित, रस में गृद्धिरहित, जिहा-इन्द्रिय को दमन करनेवाला और आहार की मूर्छा से रहित महामुनि रस के लिए-स्वाद के लिए-आहार न करे, परंतु संयम के निर्वाह के लिए ही आहार करे। ४२. अरसं विरसं वा वि सूइयं वा असूइयं ।
उल्लं वा जइ वा सुक्कं मन्थु-कुम्मास-भोयणं ।। उप्पण्णं नाइहीलेज्जा अप्पं पि बह फासयं । मुहालद्धं मुहाजीवी भुंजेज्जा दोषवज्जियं ।। (द० ५ (१) : ६८-६६)