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३१. बहुं सुणेइ कण्णेहिं बहुं अच्छीहिं पेच्छइ । न य दिट्ठे सुयं सव्वं भिक्खू अक्खाउमरिहइ ||
(द०८ : २०)
साधु कानों से बहुत बातें सुनता है, आँखों से बहुत बातें देखता है, परंतु देखी हुई, सुनी हुई सारी बातें किसी से कहना साधु के लिए उचित नहीं है। ३२. निट्ठाणं रसनिज्जूढं भद्दगं पावगं ति वा ।
पुट्ठो वा वि अपुट्ठो वा लाभालाभं न निद्दिसे ।।
(द०८ : २२ )
किसी के पूछने पर अथवा बिना पूछे यह आहार सरस है, यह नीरस है,, यह अच्छा है, यह बुरा है - ऐसा न कहे। साधु लाभालाभ की चर्चा न करे । ३३. विणएण पविसित्ता सगासे गुरुणो मुणी | इरियावहियमायाय आगओ य पंडिक्कमे ।।
भिक्षा से वापिस आने पर मुनि विनयपूर्वक अपने स्थान के पास आकर ईर्यावही सूत्र को पढ़कर प्रतिक्रमण करे ।
महावीर वाणी
३४. आभोएत्ताण नीसेसं अइयारं जहक्कमं ।
गमणागमणे चेव भत्तपाणे व संजए || उज्जुप्पन्नो अणुव्विग्गो अव्वक्खित्तेण चेयसा । आलोए गुरुसगासे जं जहा गहियं भवे ।।
(द० ५ (१): ८८)
में प्रवेश करे और गुरु
(द० ५ (१) : ८६)
(द० ३ (१) : ६०)
आने-जाने में और आहारादि ग्रहण करने में लगे हुए सब अतिचारों को तथा जो आहार पानी जिस प्रकार से ग्रहण किया हो उसे यथाक्रम से उपयोगपूर्वक याद कर वह सरल बुद्धिवाला मुनि उद्वेग-रहित एकाग्र चित्त से गुरु के पास आलोचना करे।
३६. नमोक्कारेण पारेत्ता करेत्ता जिणसंथवं ।
सज्झायं पट्ठवेत्ताणं वीसमेज्ज खणं मुणी ।।
३५. अहो जिणेहिं असावज्जा वित्ती साहूण देसिया । साहुदेहस्स धारणा ।। (द० ५ (१) :
६२)
मोक्खसाहणहेउस्स
कायोत्सर्ग में स्थित मुनि इस प्रकार विचार करे कि अहो ! जिन भगवान ने मोक्षप्राप्ति के साधनभूत साधु के शरीर को धारण करने के लिए कैसी निर्दोष भिक्षावृत्ति का उपदेश किया है ।
(द० ५ (१): ६३)
मुनि ‘णमो अरिहंताणं' पाठ के उच्चारण द्वारा कायोत्सर्ग को पूरा कर, जिनस्तुति करके स्वाध्याय करता हुआ कुछ समय के लिए विश्राम करे।