________________
३२. श्रामण्य और प्रव्रज्या
२७१
तं भवे भत्तपाणं तु संजयाण अकप्पियं । देंतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं।। (द० ५ (१) : ४१
यदि कदाचित् कालप्राप्त गर्भवती स्त्री खड़ी हो और साधु को आहारादि देने के लिए बैठे अथवा पहले बैठी हो और फिर खड़ी हो तो वह आहार-पानी साधु के लिए अकल्प्य होता है। अतः देनेवाली बाई से कहे-इस प्रकार दिया जाने वाला भक्त- . पान लेना मुझे नहीं कल्पता। २७. थणगं पिज्जेमाणी दारगं वा कुमारियं ।
तं निक्खिवित्तु रोयंतं आहरे पाणभोयणं ।। तं भवे भत्तपाणं तु संजयाणं अकप्पियं। बेतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं।। (द० ५ (१) ४२-४३)
बालक को अथवा बालिका को स्तन-पान कराती हुई स्त्री उसे रोते हुए छोड़ भक्त-पान लाये तो वह आहार-पान साधु के लिए अकल्पनीय होता है। अतः उस देनेवाली स्त्री से साधु कहे-इस तरह का आहार मुझे नहीं कल्पता है। २८. असणं पाणगं वा वि खाइमं साइमं तहा।
जं जाणेज्ज सुणेज्जा वा दाणट्ठा पगडं इम।। तं भवे भत्तपाणं तु संजयाणं अकप्पियं। देंतियं पढियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं।। (द० ५ (१) : ४७-४८)
जिस आहार, पान, खाद्य, स्वाद्य के विषय में साधु इस प्रकार जान ले अथवा सुन ले कि यह दान के लिए, पुण्य के लिए, याचकों के लिए तथा श्रमणों-भिक्षुओं के लिए बनाया गया है तो वह भक्त-पान साधु के लिए अकल्पनीय होता है। अतः साधु दाता से कहे-इस प्रकार का आहारादि मुझे नहीं कल्पता। २६. कंदं मूलं पलंबं वा आमं छिन्नं व सन्निरं।
तुंबागं सिंगबेरं च आमगं परिवज्जए।। (द० ५ (१) : ७०)
कच्चा कंद-जमीकन्द, मूल, फल अथवा काटी हुई भी सचित्त पत्तों की भाजी, घीया और अदरक साधु न ले। ३०. न य भोयणम्मि गिद्धो चरे उंछं अयंपिरो।
अफासुयं न भुंजेज्जा कीयमुद्देसियाहडं ।। (द० ८ : २३) ___ भोजन में गृद्ध न हो। साधु केवल सम्पन्न दाताओं के घर में ही भिक्षा के लिए न जाय । वाचालता-रहित होकर उंछ ले । अप्रासुक साधु के लिए क्रीत-खरीदा हुआ, औद्देशिक साधु के लिए बनाया हुआ तथा आहृत-साधु के लिए सामने लाया हुआ आहार ग्रहण न करे। यदि कदाचित् भूल से ग्रहण कर ले तो उसे न भोगे।