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महावीर वाणी
गृहस्थ के घर में जाकर संयमी न अति ऊँचे से, न अति नीचे से, न अति समीप से और न अति दूर से प्रासुक (अचित्त) और परकृत (दूसरों के निमित्त बने हुए) पिण्ड (आहार) को ग्रहण करे। २१. जहा दुमस्स पुप्फेसु भमरो आवियइ रसं।
न य पुप्फ किलामेइ सो य पीणेइ अप्पयं ।। एमए समणा मुत्ता जे लोए संति साहुणो। विहंगमा व पुप्फेसु दाणभत्तेसणे रया।। (द० १ : २-३)
जिस प्रकार भ्रमर वृक्ष के फूलों से रस पीता हुआ भी उन्हें ग्लान नहीं करता और अपनी आत्मा को संतुष्ट कर लेता है, उसी प्रकार लोक में जो मुक्त-परिग्रहरहित श्रमण हैं वे दाता द्वारा दिए जानेवाले निर्दोष आहार की एषणा में रत होते हैं, जैसे भ्रमर पुष्पों में। २२. अतिंतिणे अचवले अप्पभासी मियासणे।
हवेज्ज उयरे दंते थोवं लधुं न खिसए।।
साधु तिनतिनाहट न करनेवाला, चपलतारहित, अल्पभाषी, मित आहार करनेवाला और उदर का दमन करनेवाला हो तथा थोड़ा आहार मिलने पर क्रोधित न हो। २३. बहुं परघरे अस्थि विविहं खाइमसाइमं ।
न तत्थ पंडिओ कुप्पे इच्छा देज्ज परो न वा।। (द० ५ (२) : २७)
गृहस्थ के घर में अनेक प्रकार के बहुत से खाद्य-स्वाद्य पदार्थ होते हैं। यदि गृहस्थ साधु को न दे तो बुद्धिमान साधु उस पर कोप न करे, पर विचार करे। वह गृहस्थ है यह उसकी इच्छा है कि दे या न दे। २४. दोण्हं तु भुंजमाणाणं एगो तत्थ निमंतए।
दिज्जमाणं न इच्छेज्जा छंदं से पडिलेहए।। (द० ५ (१) : ३७)
गृहस्थ के घर दो व्यक्ति भोजन कर रहे हों और उनमें से यदि एक व्यक्ति निमन्त्रण करे तो साधु लेने की इच्छा न करे। दूसरे के अभिप्रायः को देखे। २५. गुब्विणीए उवन्नत्थं विविहं पाणभोयणं ।
भुज्जमाणं विवज्जेज्जा भुत्तसेसं पडिच्छए।। (द० ५ (१) : ३६)
गर्भवती स्त्री द्वारा अपने लिए बनाया हुआ विविध आहार-पान यदि वह खा रही हो तो साधु उन्हें न ले किन्तु यदि उसके खा चुकने के पश्चात् कुछ बचा हो तो साधु उसे ग्रहण करे। २६. सिया य समणट्ठाए गुब्बिणी कालमासिणी।
उट्ठिया वा निसीएज्जा निसन्ना वा पुणुट्ठए।। (द० ५ (१) : ४०)