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३२. श्रामण्य और प्रव्रज्या
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१४. असंसत्तं पलोएज्जा नाइदूरावलोयए।
उप्फुल्लं न विणिज्झाए नियट्टेज्ज अयंपिरो।। (द० ५ (१) : २३)
गोचरी के लिए गया हुआ साधु आसक्तिपूर्वक ने देखे, दूर तक लम्बी दृष्टि डालकर न देखे, उत्फुल्ल आँखों से न देखे । यदि भिक्षा की ना कहे तो बड़बड़ाहट न कर-चुपचाप वापस लौट आवे। १५. नाइदूरमणासन्ने नन्नेसिं चक्खु-फासओ।
एगो चिट्ठेज्ज भत्तट्ठा लंघिया तं नइक्कमे।। (उ० १ : ३३)
यदि गृहस्थ के घर में पहले से ही कोई भिक्षु भिक्षा के लिए खड़ा हो तो साधु न अति दूर न अति नजदीक एकान्त में ऐसे स्थान पर खड़ा रहे जहाँ दूसरों का दृष्टिस्पर्श न हो। वह भिक्षा के लिए उपस्थित मनुष्य को उल्लंघन कर घर में प्रवेश न करे। १६. अइभूमिं न गच्छेज्जा गोयरग्गगओ मुणी। - कुलस्स भूमिं जाणित्ता मियं भूमिं परक्कमे।। (द० ५ (१) : २४)
गोचराग्र के लिए गया हआ मुनि अतिभमि में (गहस्थ की मर्यादित भमि से) आगे न जाय, किन्तु कुल की मर्यादित भूमि को जानकर सीमित भूमि में ही रहे। १७. दममट्टियआयाणं बीयाणि हरियाणि य।
परिवज्जतो चिट्ठज्जा सव्विंदियसमाहिए।। (द० ५ (१) : २६)
सर्व इन्द्रियों को वश में रखता हुआ मुनि सचित्त जल और सचित्त मिट्टी लाने के मार्ग को तथा बीज और हरितकाय को टालकर यतनापूर्वक खड़ा रहे। १८. पविसित्तु परागारं पाणट्ठा भोयणस्स वा।
जयं चिट्टे मियं भासे ण य रुवेसु मणं करे।। (द० ८ : १६)
जल के लिए अथवा भोजन के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश करके साधु यतनापूर्वक खड़ा रहे, थोड़ा बोले, स्त्रियों के रूप में मन को न लगावे । १६. तत्थ से चिट्ठमाणस्स आहरे पाणभोयणं ।
अकप्पियं न इच्छेज्जा पडिगाहेज्ज कप्पियं ।। (द० ५ (१) : २७)
वहाँ मर्यादित भूमि में खड़े हुए साधु को गृहस्थ आहार-पानी दे, वह काल्पनिक हो तो साधु उसे ग्रहण करे और अकाल्पनिक हो तो ग्रहण न करे। २०. नाइउच्चे व नीए वा नासन्ने नाइदूरओ।
फासुयं परकडं पिण्डं पडिगाहेज्ज संजए।। (उ० १ : ३४)