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महावीर वाणी ७. पुरओ जुगमायाए पेहमाणो महिं चरे।
वज्जंतो बीयहरियाई पाणे य दगमट्ठियं ।। (द० ५ (१) : ३)
मुनि सामने युग-प्रमाण (चार हाथ प्रमाण) पृथ्वी को देखता हुआ बीज, हरितवनस्पति, प्राणी, जल तथा मिट्टी को टालता हुआ चले। ८. न चरेज्ज वासे वासंते महियाए व पडतीए।
महावाए व वायंते तिरिच्छसंपाइमेसु वा।। (द० ५ (१) : ८)
वर्षा बरस रही हो, चूअर-कुहरा गिर रहा हो, महावात-आँधी चल रही हो, पतंगकीट आदि अनेक संपातिम जीव उड़ रहे हों, उस समय साधु बाहर न जावे। ६. अणुन्नए नावणए अप्पहिढे अणाउले।
इंदियाणि जहाभागं दमइत्ता मुणी चरे।। (द० ५ (१) : १३)
मुनि न ऊपर की ओर मुँह कर और न नीचे की ओर ताकता हुआ चले। वह न हर्षित, न व्याकुल इन्द्रियों को यथाक्रम से दमन करता हुआ चले। . १०. दवदवस्स न गच्छेज्जा भासमाणो य गोयरे।
हसंतो नाभिगच्छेज्जा कुलं उच्चावयं सया।। (द० ५ (१) : १४)
गोचरी में निकला हुआ साधु दौड़ता हुआ न जाय और न हँसता हुआ तथा बोलता हुआ जाय, किन्तु हमेशा ऊँच-नीच कुल में ईर्यासमितिपूर्वक गोचरी जाय । ११. समुयाणं चरे भिक्खू कुलं उच्चावयं सया।
नीयं कुलमइक्कम्म ऊसद नाभिधारए।। (द० ५ (२) : २५)
भिक्षु सदा ऊँच और नीच-धनी और गरीब कुलों में सामुदायिक रूप से भिक्षा के लिए जावे। नीच-गरीब कुलों को लाँघकर उच्च-धनवान के घर पर न जावे। १२. पडिकुट्ठकुलं न पविसे मामगं परिवज्जए।
अचियत्तकुलं न पविसे चियत्तं पविसे कुलं ।। (द० ५ (१) : १७)
साधु शास्त्रनिषिद्ध कुल में गोचरी के लिए न जाय, स्वामी ने ना कर दी हो तो उस घर में न जाय तथा प्रीतिरहित कुल में प्रवेश न करे। वह प्रतीतिवाले घर में जाय। १३. अदीणो वित्तिमेसेज्जा न विसीएज्ज पंडिए।
अमुच्छिओ भोयणम्मि मायन्ने एसणारए।। (द० ५ (२) : २६)
आहार-पान की मात्रा को जाननेवाला और आहार की शुद्धि में तत्पर पंडित साधुभोजन में गृद्धिभाव न रखता हुआ अदीनभाव से आहार आदि की गवेषणा करे। यदि आहारदि न मिले तो खेद न करे।