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महावीर वाणी
मुधाजीवी साधु शास्त्रोक्त विधि से प्राप्त आहार की-चाहे वह रसरहित हो या विरस, बघार-छौंक दिया हुआ हो अथवा बघाररहित, गीला हो अथवा सूखा, मंथु का हो या कुल्माष का, थोड़ा हो या अधिक-निन्दा न करे। संयत साधु मुधालब्ध-दाता द्वारा विशद्ध रूप से दिए हुए दोषवर्जित, अल्प या बहुत प्रासुक आहार का केवल संयमयात्रा के निर्वाह के लिए भोजन करे । ४३. सुकडे त्ति सुपक्के त्ति सुच्छिने सुहडे मडे ।
सुणिट्ठिए सुल→त्ति सावज्जं वज्जए मुणी।। (उ० १ : ३६)
मुनि भोजन करते समय ऐसे सावध वचन न कहे कि यह अच्छा बनाया हुआ है, अच्छा पकाया हुआ है, अच्छा काटा हुआ है, इसका कड़वापन अच्छी तरह दूर किया हुआ है, यह अच्छा मरा हुआ है-घी में अच्छा चुरा हुआ है, यह अच्छे मसालों से बना हुआ है या मनोहर है। ४४. पडिग्गह संलिहित्ताणं लेव-मायाए संजए।
दुगंधं वा सुगंधं वा सव्वं भुंजे न छड्डए।। (द० ५ (२) : १)
संयत साधु लेपमात्र को भी-चाहे वह दुर्गन्धयुक्त हो अथवा सुगंधयुक्त-पात्र को अंगुली से पोंछकर सब खा जाए और कुछ जूठा न छोड़े। ४५. दुल्लहा उ मुहादाई मुहाजीवी बि दुल्लहा।
मुहादाई मुहाजीवी दो वि गचछंति सोग्गई।। (द० ५ (१) : १००)
मुधादायी निश्चय ही दुर्लभ है और इसी तरह मुधजीवी भी दुर्लभ है। मुधादायी और मुधाजीवी दोनों ही सुगति को जाते हैं।
५. परिपूर्ण श्रामण्य १. इह लोग णिरावेक्खो अप्पडिबद्धो परम्मि लोयम्हि ।
जुत्ताहारविहारो रहिदकसाओ हवे समणो।। (प्रव० ३ : २६)
श्रमण मान-सम्मान आदि रूप इस लोक की इच्छाओं से रहित होता है, परलोक में सुख की कामना से बँधा हुआ नहीं होता। उसका आहार-विहार युक्त होता है और वह कषाय-रहित होता है। २. केवलदेहो समणो देहेवि ममत्तरहियपरिकम्मो।
आजुत्तो तं तवसा अणिगूहिय अप्पणो सत्तिं ।। (प्रव० ३ : २८)
श्रमण के केवल शरीर ही का परिग्रह होता है और शरीर में भी ममत्व.रहित होता है तथा उसे अपनी शक्ति को छिपाये बिना तप से लगाये रखता है।