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________________ २६६ महावीर वाणी निश्चयनय से शरीर संबंधी चेष्टा की निवृत्ति अथवा कायोत्सर्ग या हिंसादि से निवृत्त होना कायगुप्ति कहलाती है। ३५. मणवचकायपउत्ती भिक्खू सावज्जकज्जसंजुत्ता। खिप्पं णिवारयंतो तीहिं दु गुत्तो हवदि एसो।। (मू० ३३१) सावद्य-हिंसादि कार्यों से संयुक्त मन-वचन-काया की प्रवृत्ति को शीघ्र ही दूर करता हुआ साधु तीन गुप्ति का धारक होता है। ३६. गुत्तिपरिखाइगुत्तं संजमणयरं य कम्मरिउसेणा। बंधेइ सत्तुसेणा पुरं व परखादिहिं सुगुत्तं ।। (भग० आ० १८४०) गुप्तिरूपी परिखा से रक्षित संयमरूपी नगर को कर्मरूपी शत्रुओं की सेना उसी प्रकार नहीं बाँध सकती, जिस प्रकार परिखा आदि से सुरक्षित नगर को शत्रुओं की सेना। ३७. खेत्तस्स वई णयरस्स खाइया अहव होइ पायारो। तह पापस्स णिरोही ताओ गुत्तीओ साहुस्स।।' (मू० ३३४) जैसे खेत के लिए बाड़ तथा नगर के लिए खाई और परकोटा होता है उसी प्रकार पापों को रोकने के लिए गुप्तियाँ होती हैं। ३८. तम्हा तिविहेण तुमं णिच्चं मणवयणकायजोगेहिं। होहिसु समाहिदमई णिरंतरं झाण सज्झाए।। (मू० ३३५) इस कारण हे पुरुष ! तू कृत, कारित, अनुमोदन सहित मन, वचन और काया के योगों (प्रवृत्ति) से हमेशा ध्यान और स्वाध्याय में सावधानी से चित्त को लगा। ३६. एयाओ पंच समिईओ चरणस्स य पवत्तणे। गुत्ती नियत्तणे वुत्ता असुभत्थेसु सव्वसो।। (उ० २४ : २६) उक्त पाँचों समितियाँ चरित्र की प्रवृत्ति के विषय में कही गई हैं और तीनों गुप्तियाँ सर्व प्रकार के अशुभ अर्थों (मनोयोगादि) से निवृत्ति के विषय में कही गई है। ४०. एया पवयणमाया जे सम्मं आयरे मुणी। से खिप्पं सव्वसंसारा विप्पमुच्चइ पण्डिए ।। (उ० २४ : २७) जो मुनि इन प्रवचन-माताओं का सम्यक भाव से आचरण करता है, वह पण्डित सर्व संसार-चक्र से शीघ्र ही छूट जाता है। - १. भग० आ० ११८६ ।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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