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३२. श्रामण्य और प्रव्रज्या
७. वचन गुप्ति
२६. थी - राज - चोर - भत्तकहादिवयणस्स पावहेउस्स । परिहारो वयगुत्ती अलीयादिणियत्तिवयणं वा । ।
(नि० सा० ६७ )
पाप की हेतु स्त्री-कथा, राज- कथा, चोर-कथा और भोजन- कथा रूप वचनों का त्याग करना वचनगुप्ति है अथवा असत्य आदि दोषों से युक्त वचन न बोलना वचनगुप्ति है।
३०. संरम्भसमारम्भे आरम्भे य तहेव य ।
वयं पवत्तमाणं तु नियत्तेज्ज जयं जई ।।
(उ० २४ : २३)
यतनाशील यति संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ में प्रवृत्त होते हुए वचन को निवृत्त करे - हटावे |
८. काय गुप्ति
३१. बंधण-छेदण-मारण-आकुंचण तह पसारणादीया | कायकिरियाणियत्ती णिद्दिट्ठा कायगुत्ति त्ति । ।
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(नि० सा० ६८ )
बाँधना, छेदना, मारना, संकोचना तथा फैलाना आदि काय-क्रियाओं से निवृत्ति गुप्ति कही गई है ।
३२. ठाणे निसीयणे चेव तहेव य तुयट्टणे । उल्लंघणपल्लंघणे इन्दियाण य जुंजणे ।। संरम्भसमारम्भे आरम्भम्मि तहेव य । कायं पवत्तमाणं तु नियत्तेज्ज जयं जई ||
( उ० २४ : २४)
(उ० २४ : २५)
यतनाशील व्यक्ति ठहरने के विषय में, बैठने के विषय में, शयन के विषय में, उल्लंघन-प्रलंघन के विषय में तथा इन्द्रियों के प्रयोग में काया को संयम में रखे तथा संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ में प्रवृत्त होती हुई काया को निवृत्त करे - हटावे । ३३. जा रायादिणियत्ती मणस्स जाणाहि तं मणोगुत्ती | अलियादिणियत्ती वा मोणं वा होदि वचिगुत्ती । ।
(मू० ३३२) निश्चयनय से मन की जो रागादि से निवृत्ति है उसे ही मनोगुप्ति जानो - झूठ आदि से निवृत्ति अथवा मौन धारण करना वचनगुप्ति कहलाती है।
३४. कायकिरियाणियत्ती काउस्सग्गो सरीरगे गुत्ती । हिंसादिणियत्ती वा सरीरगुत्ती हवदि एसा । । '
१. भग० आ० ११८८ ।
(मू० ३३३)