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महावीर वाणी
पाँच समिति रूप दृढ़ नाव पर चढ़कर अप्रमत्त पुरुष छ: प्रकार के जीव-समूह की हिंसा आदि पाप रूप मगरमच्छ से अस्पृष्ट होता हुआ संसाररूपी समुद्र को पार करता है। २४. एदाहिं सया जुत्तो समिदीहिं महिं विहरमाणोवि।
हिंसादीहिं ण लिप्पइ जीवणिकाआडले साहू।।' (मू० ३२६)
इन पाँच समितियों से सदा युक्त साधु जीव-समूह से भरी हुई पृथ्वी में विहार करता हुआ भी हिंसादि पापों से लिप्त नहीं होता। २५. पउमिणिपत्तं व जहा उदएण ण लिप्पदि सिणेहगुणजुत्तं । तह समिदीहिं ण लिप्पदि साधू काएसु इरियंतो।।२
(मू० ३२७) जिस प्रकार कमलिनी का पत्ता स्नेह-गुण युक्त होने के कारण जल से लिप्त नहीं होता, उसी तरह समितियों से युक्त पुरुष जीव-निकायों में विहार करता हुआ भी पापों से लिप्त नहीं होता। २६. सरवासेहि पडतेहि जह दिढकवचो ण भिज्जदि सरेहि।
तह सतिदीहिं ण लिप्पइ साहू काएसु इरियंतो ।। (मू० ३२८)
जिस प्रकार दृढ़ कवचधारी योद्धा वाणों की वर्षा होते हुए भी वाणों से विद्ध नहीं होता, उसी प्रकार समितियों से युक्त साधु जीव-समूह में विहार करता हुआ भी आस्रवों से लिप्त नहीं होता।
६. मनोगुप्ति २७. कालुस्समोहसण्णा-रागद्दोसाइ-असुहभावणं ।
परिहारो मणुगुत्ती ववहारणयेण परिकहियं ।। (नि० सा० ६६)
कलुषता, मोह, संज्ञा, राग, द्वेष आदि अशुभ भावों के परिहार को व्यवहार-नय से मनोगुप्ति कहा है। २८. संरम्भसमारम्भे आरम्भे य तहेव य ।
मणं पवत्तमाणं तु नियत्तेज्ज जयं जई।। (उ० २४ : २१)
यतनाशील यति संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ में प्रवृत्त होते हुए मन को निवृत्त करे-हटाये।
१. भग० आ० १२००। २. भग० आ० १२०१॥ ३. भग० आ० १२०२।