________________
३२. श्रामण्य और प्रव्रज्या
२६३
४. आदान समिति १६. णाणुवहिं संजमुवहिं सौचुवहिं अण्णमप्पमुवहिं वा।
पयदं गहणिक्खेवो समिदि आदाणणिक्खेवा।। (मू० १४)
ज्ञानोपकरण, संयमोपकरण, शौचोपकरण तथा अन्य उपकरणों का यत्नपूर्वक (देख-शोधकर) उठाना-रखना आदाननिक्षेपण समिति कही जाती है। २०. चक्खुसा पडिलेहित्ता पमज्जेज्ज जयं जई।
आइए निक्खिवेज्जा वा दुहओ वि समिए सया।। (उ० २४ : १४)
यतनाशील साधु औधिक और औपग्रहिक दोनों प्रकार के उपकरणों का आँखों से प्रतिलेखन कर प्रमार्जन करे तथा उनके उठाने और रखने में सदा समितियुक्तसावधान हो। २१. एगंते अच्चित्ते दूरे गूढे विसालमविरोहे। उच्चारादिच्चाओ पदिठावणिया हवे समिदी।।
(मू० १५) एकान्त, जीवरहित, दूर, छिपे, विशाल और लोग जिसका विरोध न करें ऐसे स्थान में मूत्र-विष्ठा आदि का त्याग करना प्रतिष्ठापना समिति कही जाती है।
५. उत्सर्ग समिति २२. उच्चारं पासवणं खेलं सिंघाणजल्लियं।
आहारं उवहिं देहं अन्नं वावि तहाविहं ।। (उ० २४ : १५) अणावायमसंलोए परस्सऽणुवघाइए। समे अज्झुसिरे यावि अचिरकालकयंमि य ।। (उ० २४ : १७) वित्थिण्णे दूरमोगाढे नासन्ने बिलवज्जिए। तसपाणबीयरहिए उच्चाराईणि वोसिरे।। (उ० २४ : १८)
उच्चार-मल, प्रस्रवण-मूत्र, खंखार,, नासिका का मैल, शरीर का मैल, आहार, उपधि, देह-शव तथा और इसी प्रकार की उत्सर्ग-योग्य वस्तुओं का मुनि उस स्थान में-जहाँ न कोई आता हो और जहाँ से न कोई दीखता हो, जहाँ दूसरे जीवों की घात न हो, जो प्रायः सम हो तथा जो पोला या दराररहित हो तथा जो कुछ काल से अचित्त हो, जो विस्तृत हो, काफी नीचे तक अचित्त हो, ग्रामादि से अति समीप न हो, मूषकादि के बिल तथा त्रस प्राणी और बीजों से रहित हो-उत्सर्ग करे। २३. समिदिदिढणावमारुहिय अप्पमत्तो भवोदधिं तरदि ।
छज्जीवणिकायवधादिपावमगरेहिं अछित्तो।। (भग० आ० १८४१)