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महावीर वाणी
प्रज्ञावान् संयमी (उक्त) आठ स्थानों का वर्जन करता हुआ यथासमय परिमित और असावद्य भाषा बोले। १४. तहेव सावज्जणुमोयणी गिरा ओहारिणी जा य परोवघाइणी। से कोह लोह भयसा व माणवो न हासमाणो वि गिरं वएज्जा।।
(द० ७ : ५४) इसी तरह जो भाषा सावद्य-पाप-कार्य की अनुमोदना करनेवाली हो, जो निश्चयात्मक हो, जो पर की घात करनेवाली हो, वैसी भाषा मुनि क्रोध से, लोभ से, भय से या हास-परिहास से न बोले।
१५. सच्चं असच्चमोसं अलियादीदोसवज्जमणवज्ज। . वदमाणस्सणुवीची भासासमिदि हवदि सुद्धा ।। (भग० आ० ११६२)
अलीक आदि दोषों से रहित, अनवद्य वचन बोलनेवाले श्रमण के भाषा समिति होती है। श्रमण सत्य तथा न सत्य न असत्य (व्यवहार) भाषा बोलते हैं। १६. सवक्कसुद्धिं समुपेहिया मुणी गिरं च दुटुं परिवज्जए सया। मियं अदुळं अणुवीइ भासए सयाण मज्झे लहई पसंसणं ।।
(द० ७ : ५५) जो मुनि वाक्य-शुद्धि की आलोचना कर दुष्टगिरा को सदा के लिए छोड़ देता है, और जो विचारकर मित और अदुष्ट भाषा बोलता है वह सत्पुरुषों में प्रशंसा प्राप्त करता है। १७. भासाए दोसे य गुणे य जाणिया तीसे य दुढे परिवज्जए सया। छसु संजए सामणिए सया जए वएज्ज बुद्धे हियमाणुलोमियं ।।
__(द० ७ : ५६) षट्काय के जीवों के प्रति संयत तथा श्रामण्य में सदा यतनाशील बुद्ध पुरुष भाषा के गुण और दोषों को भली भाँति जानकर दुष्ट भाषा को सदा के लिए छोड़ दे और हितकारी तथा आनुलोमिक-अनुकूल-सुमधुर भाषा बोले।
३. एषणा समिति १८. कदकारिदाणुमोदणरहिदं तह पासुगं पसत्थं च ,
दिण्णं परेण भत्तं समभुत्ती एसणासमिदी।। (नि० सा० ६३)
कृत, कारित और अनुमोदनरहित, प्रासुक प्रशस्त तथा दूसरे के द्वारा दिया गया भोजन समभावपूर्वक ग्रहण करना एषणा समिति है।