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३२. श्रामण्य और प्रव्रज्या
२६१ ७. आलम्बणेण कालेण मग्गेण जयणाइ य।
चउकारणपरिसुद्धं संजए इरियं रिए।। (उ० २४ : ४)
संयमी आलम्बन, काल, मार्ग और यतना-इन चार कारणों से परिशुद्ध ईर्या से चले। ८. तत्थ आलम्बणं नाणं दंसणं चरणं तहा।
काले य दिबसे वुत्ते मग्गे उप्पहवज्जिए।। (उ० २४ : ५)
उनमें ईर्या का आलम्बन (हेतु) ज्ञान, दर्शन और चरण (चारित्र) है। ईर्या का काल दिन कहा गया है। ईर्या का मार्ग-उत्पथ-वर्जन-सुपथ है। . ६. दब्बओ चक्खुसा पेहे जुगमित्तं च खेत्तओ।
कालओ जाव रीएज्जा उवउत्ते य भावओ।। (उ० २४ : ७)
द्रव्य से-आँखों से देखकर चले। क्षेत्र से-युग मात्र-गाड़ी के-धुरे–जितने मार्ग को देखकर चले। काल से-जब तक चलता रहे तब तक। भाव से-जब चले तब उपयोगपूर्वक चले। . १०. इंदियत्थे विवज्जित्ता सज्झायं चेव पंचहा।
तम्मुत्ती तप्पुरक्कारे उवउत्ते इरियं रिए।। (उ० २४ : ८)
इन्द्रियों के विषय और पाँच प्रकार के स्वाध्याय का वर्जन कर ईया-चलने में ही तन्ममय हो और उसी को प्रधान कर मार्ग में उपयोगपूर्वक चले।
२. भाषा समिति ११. पेसुण्णहासकक्कसपरणिंदाप्पप्पसंसविकहादि।
वज्जित्ता सपरहिदं भासासमिदी हवे कहणं ।। (मू० १२) ___ पैशुन्य, हास्य, कर्कश वचन, पर-निन्दा, आत्म-प्रशंसा और विकथा रूप वचनों का परिहार कर स्व-पर-हितकारी वचन कहना भाषा समिति कहलाती है। १२. कोहे माणे य मायाए लोभे य उवउत्तया।
हासे भए मोहरिए विगहासु तहेव च ।। (उ० २४ : ६)
क्रोध, मान, माया, लोभ तथा हास्य, भय, मुखरता और विकथा-वाणी के इन दोषों के सम्बन्ध में उपयुक्तता-पूरा ध्यान रखना चाहिए। १३. एयाइं अट्ठ ठाणाइं परिवज्जित्तु संजए।
असावज्जं मियं काले भासं भासेज्ज पन्नवं ।। (उ० २४ : १०)