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३२. श्रामण्य और प्रव्रज्या
२५७ जाणेज्जा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएण न करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं न समणुजाणामि। तस्सय भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि। दोच्चे भंते ! महव्वए उवट्ठिओमि सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं ।
(द० ४, सू० १२) हे भन्ते ! इसके बाद दूसरे महाव्रत में मृषावाद-झूठ से विरमण होता है। हे भन्ते! मैं सर्व मृषावाद का प्रत्याख्यान करता हूँ। क्रोध से या लोभ से या भय से या हँसी में मैं स्वयं झूठ नहीं बोलूँगा, दूसरों से झूठ नहीं बुलवाऊँगा और झूठ बोलनेवालों का अनुमोदन भी नहीं करूँगा। त्रिविध-त्रिविध रूप से-मन, वचन और काया से नहीं करूँगा, नहीं कराऊँगा और करनेवालों का अनुमोदन भी नहीं करूँगा। मृषावाद का मुझे यावज्जीवन के लिए प्रत्याख्यान है।
हे भन्ते ! मैंने अतीत में झूठ बोला है, उससे अलग होता हूँ, उसकी निन्दा करता हूँ, गर्दा करता हूँ और आत्मा का व्युत्सर्ग-त्याग करता हूँ।
हे भन्ते ! मैं सर्व मृषावाद से विरमण के लिए इस दूसरे महाव्रत में उपस्थित हुआ हूँ। ३. अहावरे तच्चे भंते ! महव्वए अदिन्नादाणाओ वेरमणं सव्वं भंते !
अदिन्नादाणं पच्चक्खामि-से गामे वा नगरे वा रण्णे वा अप्पं वा बहु वा अणुं वा थूलं वा चित्तमंतं वा अचित्तमंतं वा, नेव सयं अदिन्नं गेण्हेज्जा नेवन्नेहिं अदिन्नं गेण्हावेज्जा अदिन्नं गेण्हते वि अन्ने न समणुजाणेज्जा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेण मणेणं वायाए काएणं न करेमिं न कारवेमि करतं पि अन्नं न समणुजाणामि। तस्स भंते ! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि। तच्चे भंते ! महव्वए उवडिओमि सव्वाओ अदिन्नादाणाओ वेरमणं।
(द० ४, सू० १३) हे भन्ते ! इसके बाद तीसरे महाव्रत में अदत्त-चोरी से विरमण होता है।
हे भन्ते ! मैं सर्व अदत्त ग्रहण का प्रत्याख्यान करता हूँ। ग्राम में, नगर में या अरण्य में कहीं भी अल्प या बहुत, सूक्ष्म अथवा स्थूल, सचित्त अथवा अचित्त-किसी भी अदत्त-वस्तु को मैं स्वयं ग्रहण नहीं करूँगा, अदत्त-वस्तु को दूसरे से ग्रहण नहीं कराऊँगा और अदत्त-वस्तु ग्रहण करनेवालों का अनुमोदन भी नहीं करूँगा। त्रिविध-त्रिविध रूप से मन, वचन और काया से नहीं करूँगा, नहीं कराऊँगा, करनेवाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा। अदत्त ग्रहण का मुझे यावज्जीवन के लिए प्रत्याख्यान है।