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________________ ३२. श्रामण्य और प्रव्रज्या २५५ ३२. को वा से ओसहं देई ? को वा से पुच्छई सुहं ? को से भत्तं च पाणं च आहरित्तु पणामए ? (उ० १६ : ७६) “कौन उसे औषधि देता है ? कौन उससे सुख की बात पूछता है ? कौन उसे आहार-पानी लाकर देता है ? ३३. जया य से सुही होइ तया गच्छइ गोयरं। भत्तपाणस्स अट्ठाए बल्लराणि सराणि य।। (उ० १६ : ८०) “जब वह स्वस्थ हो जाता है तब गोचर में जाता है। खाने-पीने के लिए लतानिकुंजों और जलाशयों में जाता है। , ३४. खाइत्ता पाणियं पाउं वल्लरेहिं सरेहि वा। मिगचारियं चरित्ताणं गच्छई मिगचारियं ।। (उ० १६ : ८१) __ “लता-निकुंजों और जलाशयों में खा-पीकर वह मृग-चर्या के द्वारा कूद-फाँद करता हुआ मृग-चर्या-स्वतंत्र-विहार के लिए चला जाता है। ३५. एवं समुडिओ भिक्खू एवमेव अणेगओ। मिगचारियं चरित्ताणं उड्ढं पक्कमई दिसं।। (उ० १६ : ८२) “इसी प्रकार संयम के लिए उठा हुआ भिक्षु स्वतंत्र विहार करता हुआ मृग-चर्या का आचरण कर ऊँची दिशा-मोक्ष को चला जाता है। ३६. जहा मिगे एग अणेगचारी अणेगवासे धुवगोयरे य। एवं मुणी गोवरियं पविढे नो हीलए नो वि य खिंसएज्जा ।। (उ० १६ : ८३) "जिस प्रकार मृग अकेला अनेक स्थानों में विचरनेवाला, अनेक स्थानों में रहनेवाला और सदा गोचर से जीवन-यापन करनेवाला होता है, वैसे ही श्रमण होता है। गोचर में प्रविष्ट मुनि जब भिक्षा के लिए जाता है तब किसी की अवज्ञा या निंदा नहीं करता। ३७. मियचारियं चरिस्सामि सव्वदुक्खविमोक्खणिं। तुभेहिं अम्म ! ऽणुन्नाओ गच्छ पुत्त ! जहासुहं।। (उ० १६ : ८५) “हे माता-पिता ! आप दोनों की अनुज्ञा पा मैं मृग-चर्या का आचरण करूँगा। प्रव्रज्या सर्व दुःखों से मुक्त करनेवाली है। माता-पिता बोले : “हे पुत्र ! जाओ यथासुख करो।" ३८. एवं सो अम्मापियरो अणुमणित्ताण बहुविहं । ममत्तं छिन्दई ताहे महानागो व कंचुयं ।। (उ० १६ : ८६)
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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