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________________ २५४ महावीर वाणी २५. भुंज माणुस्सए भोगे पंचलक्खणए तुमं । भुत्तभोगी तओ जाया पच्छा धम्मं चरिस्ससि ।। (उ० १६ : ४३) माता-पिता बोले : “पुत्र ! तू मनुष्य-सम्बन्धी पाँच इन्द्रियों के भोगों का भोग कर। भुक्तभोगी हो, बाद में मुनि-धर्म का आचरण करना। २६. अम्मताय ! मए भोगा भुत्ता विसफलोवमा । पच्छा कडुयविवागा अणुबंधदुहावहा।। (उ० १६ : ११) "हे माता-पिता ! मैं कामभोग भोग चुका। ये कामभोग विषफल के समान हैं। बाद में इनका फल बड़ा कटु होता है। ये निरन्तर दुःखावह हैं। २७. माणुसुत्ते असारम्मि वाहीरोगाण आलए। जरामरणपत्थम्मि खणं पि न रमामऽहं ।। (उ० १६ : १४) "मनुष्य-जीवन असार है। व्याधि और रोग का घर है। जरा और मरण से ग्रस्त है। इसमें मुझे एक क्षण के लिए भी आनन्द-प्राप्ति नहीं है।" २८. तं बिंत ऽम्मापियरो छन्देणं पुत्तं ! पव्वया। नवरं पुण सामण्णे, दुक्खं निप्पडिकम्मया।। (उ० १६ : ७५) माता-पिता ने उससे कहा : “तुम्हारी इच्छा है तो प्रव्रजित हो जाओ, परन्तु साधुजीवन में रोगों की चिकित्सा नहीं की जाती, यह भी दुष्कर है।" २६. सो बिंत ऽम्मापियरो ! एवमेयं जहाफुडं। पडिकम्मं को कुणई अरण्णे मियपक्खिणं।। (उ० १६ : ७६) __वैरागी ने माता-पिता से कहा : आपने जो कहा वह ठीक है, किन्तु अरण्य में हरिण और पक्षियों की चिकित्सा कौन करता है ? ३०. एगभूओ अरण्णे वा जहा उ चरई मिगो। एवं धम्मं चरिस्सामि संजमेण तवेण य।। (उ० १६ : ७७) “जैसे जंगल में हरिण अकेला विचरता है, वैसे ही मैं संयम और तप के साथ एकाकी भाव को प्राप्त कर धर्म का आचरण करूँगा। ३१. जया मिगस्स आयंको सहारण्णम्मि जायई। अच्छंन्तं रुक्खमूलम्मि को णं ताहे तिगिच्छई ? (उ० १६ : ७८) "जब महावन में हरिण के शरीर में आतंक उत्पन्न होता है तब किसी वृक्ष के नीचे बैठे हुए उस हरिण की कौन चिकित्सा करता है ?"
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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