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________________ ३२. श्रामण्य और प्रव्रज्या २५३ “पुत्र ! साँप जैसे एकाग्र-दृष्टि के चलता है, वैसे एकाग्र-दृष्टि से चरित्र का पालन करना बहुत ही कठिन कार्य है। लोहे के जवों को चबाना जैसे कठिन है वैसे ही चरित्र का पालन करना कठिन है। १६. जहा अग्गिसिहा दित्ता पाउं होइ सुदुक्करं। तह दुक्करं करेउं जे तारुण्णे समणत्तणं ।। (उ० १६ : ३६) "जिस तरह प्रज्वलित अग्निशिखा को पीना अत्यंत दुष्कर है, उसी प्रकार तरुणावस्था में श्रमणत्व का पालन करना बड़ा दुष्कर है। २०. जहा दुक्खं भरेउं जे होइ वायस्स कोत्थलो। तहा दुक्खं करेउं जे कीवेणं समणत्तणं।। (उ० १८ : ४०) "जैसे वायु से कोथला-थैला-भरना कठिन है, उसी प्रकार क्लीव (सत्त्वहीन) पुरुष के लिए श्रमणत्व-संयम का पालन करना कठिन है। २१. जहा तुलाए तोलेउं दुक्करं मंदरो गिरी। तहा निहुयं नीसंकं दुक्करं समणत्तणं ।। (उ० १६ : ४१) “जैसे मेरु पर्वत को तराजू में तौलना दुष्कर है, वैसे ही निश्चल और निःशंक भाव से श्रमणत्व का पालन करना दुष्कार है। २२. जहा भुयाहिं तरिउं दुक्करं रयणागरो। तहा अणुवसन्तेणं दुक्करं दमसागरो ।। (उ० १६ : ४२) ___“जिस तरह भुजाओं से रत्नाकर-समुद्र का तैरना दुष्कर है उसी तरह अनुपशांत आत्मा द्वारा दमरूपी समुद्र का तैरना दुष्कर है" २३. तं बिंत ऽम्मापियरो एवमेयं जहा फुडं। इह लोए निप्पिवासस्स नत्थि किंचि वि दुक्करं ।। (उ० १६ : ४४) वैरागी बोला : “हे माता-पिता ! आपने प्रव्रज्या के विषय में कहा है, वह सत्य है.. पर इस लोक में जो पिपासा (तृष्णा) रहित है उसके लिए कुछ भी दुष्कर नहीं। २४. अग्गं वणिएहिं आहियं धारेती रायाणया इहं। एवं परमा महव्वया अक्खाया उ सराइभोयणा ।।। - (सू० १, २ (३) : ३) "जिस तरह बनियों द्वारा दूर देश से लाए हुए रत्नादि बहुमूल्य और उत्तम द्रव्यों को राजा-महाराजा आदि धारण करते हैं उसी तरह ज्ञानियों द्वारा कहे हुए पाँच महाव्रत और छठे रात्रि-भोजन-विरमण व्रत को आत्मार्थी पुरुष ही धारण करते हैं।"
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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