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महावीर वाणी १२. छुहा तण्हा य सीउण्हं दंसमसगवेयणा।
अक्कोसा दुक्खसेज्जा य तणफासा जल्लमेव य।। (उ० १६ : ३१) तालाणा तज्जणा चेव वहबन्धपरीसहा। दुक्खं भिक्खायरिया जायणा य अलाभया।। (उ० १६ : ३२)
"क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, डाँस और मच्छरों की वेदना, आक्रोश, कष्टप्रद स्थान, तृण का बिछौना, मैल, ताड़ना, तर्जना, बध और बंध का परीषह और भिक्षाचर्या, चाचना और अलाभ-इन्हें सहन करना कठिन है। १३. कावोया जा इमा वित्ती केसलोओ य दारुणो।
दुक्खं बम्भवयं घोरं धारेउं अ महप्पणो।। (उ० १६ : ३३) __ "यह जो कापोती वृत्ति है, दारुण केश-लोंच और घोर ब्रह्मचर्य का धारण करना है, यह महान् आत्माओं के लिए भी कष्टकर है।। १४. सुहोइओ तुमं पुत्ता ! सुकुमालो सुमज्जिओ।
न हु सी पभू तुमं पुत्ता ! सामण्णमणुपालिउं ।। (उ १६ : ३४)
“हे पुत्र ! तू सब भोगने योग्य है, सुकुमार है और साफ-सुथरा रहने वाला है। अतः हे पुत्र! तू श्रामण्य पालन में समर्थ नहीं है। १५. जावज्जीवमविस्सामो गणाणं तु महाभरो।
गुरुओ लोहमारो ब्व जो पुत्ता ! होइ दुव्यहो।। (उ० १६ : ३५) __ "हे पुत्र ! इस श्रामण्य वृत्ति में जीवनपर्यन्त विश्राम नहीं है। भारी लौह-भार की तरह यह गुणों का बड़ा बोझा है, जिसे वहन करना बड़ा दुष्कर है। १६. आगासे गंगसोउ व्व पडिसोओ व्व दुत्तरो।
बाहाहिं सागरो चेव तरियव्वो गुणोयही।। (उ० १६ : ३६) ___ “आकाशगंगा के स्रोत, प्रतिस्रोत और भुजाओं से सागर को तैरने की तरह गुणोदधि-गुणों के सागर संयम का तैरना दुष्कर है। १७. वालुयाकवले चेव निरस्साए उ संजमे ।
असिधारागमणं चेव दुक्करं चरिउं तवो।। (उ० १६ : ३७)
"संयम बालू के कवल की तरह नीरस है तथा तप का आचरण असि-धार पर चलने के समान दुष्कर है। १८. अहीवेगन्तदिट्ठीए चरित्ते पुत्त दुच्चरे।
जवालोहमया चेव चावेयव्वा सुदुक्करं ।। (उ० १६ : ३८)