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________________ ३२. श्रामण्य और प्रव्रज्या ५. तं विंतऽम्मापियरो सामण्णं पुत्त ! दुच्चरं । गुणाणं तु सहस्साइं धारेयव्वाइं भिक्खुणो ।। (उ० १६ : २४) माता-पिता बोले : "हे पुत्र ! भिक्षु को सहस्रों गुण धारण करने पड़ते हैं। श्रामण्य बड़ा दुश्चर है। ६. समया सव्वभूएसु सत्तुमित्तेसु वा जगे । पाणाइवायविरई जावज्जीवाए दुक्करा ।। (उ०१६ : २५) "शत्रु-मित्र - संसार के सभी प्राणियों के प्रति समभाव और यावज्जीवन प्राणातिपात से विरति - यह दुष्कर है। ७. निच्चकालऽप्पमत्तेणं मुसावायविवज्जणं । भासियव्वं हियं सच्चं निच्चाउत्तेण दुक्करं ।। ( उ० १६ : २६) "सदैव अप्रमत्त भाव से मृषावाद - झूठ का विसर्जन करना और सदा-उपयोगसावधानीपूर्वक हितकारी सत्य बोलना - यह दुष्कर है। ८. दन्तसोहणमाइस्स अदत्तस्स विवज्जणं । अणवज्जेसणिज्जस्स गेण्हणा अवि दुक्करं ।। २५१ ( उ०१६ : २७ ) "दंत शोधन की शली जैसे पदार्थ का भी बिना दिए ग्रहण न करना तथा निरवद्य और एषणीय पदार्थ ही ग्रहण करना - यह दुष्कर है। ६. विरई अबम्भचेरस्स कामभोगरसन्नुणा । उग्गं महव्वयं बम्भं धारेयव्वं सुदुक्करं ।। (उ०१६ : २८) "कर्मभोग के रस को जो जान चुका, उसके लिए अब्रह्मचर्य से विरति और यावज्जीवन उग्र महाव्रत ब्रह्मचर्य का धारण करना अत्यन्त दुष्कर है। १०. धणधन्नपेसवग्गेसु परिग्गहविवज्जणं । सव्वारम्भपरिच्चाओ निम्ममत्तं सुदुक्करं ।। ( उ०१६ : २६) "धन, धान्य, प्रेष्य वर्ग आदि परिग्रह का यावज्जीवन के लिए विवर्जन तथा सर्व आरम्भ का त्याग एवं निर्ममत्व भाव दुष्कर है। ११. चउव्विहे वि आहारे राईभोयणवज्जणा । सन्निहीसंचओ चेव वज्जेयव्वो सुदुक्करं ।। ( उ०१६ : ३०) "चारों ही प्रकार के आहार का रात्रि भोजन छोड़ना तथा दूसरे दिन के लिए सन्निधि और संचय का परिहार करना अति दुष्कर है।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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