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________________ ३२ : श्रामण्य और प्रव्रज्या १. दुष्कर श्रामण्य १. विसएहि अरज्जन्तो रज्जंतो संजमम्मि य। अम्मापियरं उवागम्म इमं वयणमब्बवी।। (उ० १६ : ६) विषयों में राग न रहने और संयम में अनुरक्त हो जाने से वैरागी माता-पिता के पास आकर बोला२. सुयाणि मे पंच महब्वयाणि । नरएसु दुक्खं च तिरिक्खजोणिसु। निविण्णिकामो मि महण्णवाओ, अणुजाणह पव्वइस्सामि अम्मो।। (उ० १६ : १०) — “हे माता ! मैंने पाँच महाव्रत सुने हैं। नरक और तिर्यंच योनियों में दुःख है। मैं इस संसार-रूपी समुद्र से निवृत्त होने की कामनावाला हो गया हूँ। हे माता ! मैं प्रव्रज्या ग्रहण करूँगा। मुझे आज्ञा दें। ३. असासए सरीरम्मि, रई नोवलभामहं। पच्छा पुरा व चइयव्वे, फेणबुब्बुयसन्निभे।। (उ० १६ : १३) "यह शरीर फेन के बुदबुद की तरह क्षणभंगुर है। इसे पहले या पीछे अवश्य छोड़ना पड़ता है। इस अशाश्वत शरीर में मुझे जरा भी आनन्द नहीं मिलता। ४. जहा गेहे पलित्तम्मि तस्स गेहस्स जो पहू। सारभण्डाणि नीणेइ असारं अवउज्झइ।। एवं लोए पलित्तम्मि जराए मरणेण य। अप्पाणं तारइस्सामि तब्भेहिं अणुमन्निओ।। (उ० १६ : २२-२३) "जैसे घर में आग लग जाने पर उस घर का स्वामी सार उपकरणों को उसमें से निकालता है. और असार को छोड़ देता है। ____ “वैसे ही जरा और मरणरूपी अग्नि से जलते हुए इस लोक से मैं आपकी अनुमति से आत्मा का उद्धार करूँगा। हे माता-पिता! आप मुझे आज्ञा दें।"
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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