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३१. भावनायोग
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जो जीव धर्म में स्थित है उसकी सर्वत्र कीर्ति होती है, उसका सब लोग विश्वास करते हैं, वह पुरुष सबको प्रिय वचन कहता है, वह पुरुष अपने तथा दूसरे के मन को शुद्ध करता है। १६. जो धम्मत्थो जीवो सो रिउवग्गे वि कुणइ खमभावं। ता परदव्वं वज्जइ जणणिसमं गणइ परदारं।।
(द्वा० अ० ४२६) जो जीव धर्म में स्थित है वह रिपुओं के समूह पर भी क्षमा-भाव करता है, वह परद्रव्य का त्याग करता है और परस्त्री को माता के समान समझता है। २०. उत्तमधम्मेण जुदो होदि तिरक्खो वि उत्तमो देवो।
चंडालो वि सुरिंदो उत्तमधम्मेण संभवदि।। (द्वा० अ० ४३१) ___ उत्तम धर्म से युक्त तिर्यंच भी उत्तम देव होता है। उत्तम धर्म से चांडाल भी सुरेन्द्र हो जाता है। २१. अग्गी वि य होदि हिमं होदि भुयंगो वि उत्तम रयणं। जीवस्स सुधम्मादो देवा वि य किकरा होति।।
(द्वा० अ० ४३२) जीव के उत्तम धर्म के प्रभाव से अग्नि भी हिम हो जाती है, सर्प भी उत्तम रत्नों की माला हो जाता है, देव भी किंकर हो जाते हैं। २२. देवो वि धम्मोवत्तो मिच्छत्तवसेण तरुवरो होदि। चक्की वि धम्मरहिओ णिवडइ णरए ण संपदे होदि।।
(द्वा० अ० ४३५) धर्मरहित देव भी मिथ्यात्व के वश वृक्षरूपी एकेन्द्रिय जीव हो जाता है। धर्मरहित चक्रवर्ती भी नरक में पड़ता है। २३. इय पच्चक्खं पिच्छिय धम्माहम्माण विविहिमाहप्पं ।
धम्मं आयरह सया पावं दूरेण परिहरह।। (द्वा० अ० ४३७)
हे प्राणियों ! इस प्रकार से धर्म और अधर्म का अनेक प्रकार का माहात्म्य प्रत्यक्ष देखकर तुम सदा धर्म का आदर करो और पाप को दूर ही से छोड़ो।