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१२. धम्मेण होदि पुज्जो विस्ससणिज्जो पिओ जसंसी य । सुहसज्झो य णराणं धम्मो मणणिव्वुदिकरो
य । ।
(भग० आ० १८५८)
धर्म से मनुष्य पूजनीय, विश्वसनीय, प्रिय और यशस्वी होता है। धर्म लिए सुखसाध्य है । धर्म ही मनुष्य को शांति प्रदान करता है । १३. खंतीमद्दवअज्ज्वलाघवतवसंजमो अकिंचणदा ।
तह होइ बंभचेरं सच्चं चाओ य दुसधम्मा ।।
महावीर वाणी
(मू० ७५४)
उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, तप, संयम, आकिंचन्य, ब्रह्मचर्य, सत्य और त्याग धर्म के दश भेद हैं।
१५. धम्मं ण मुणदि जीवो अहवा जाणेइ कहव कट्ठेण । काउं तो वि ण सक्कादि मोहपिसाएण भोलविदो ।।
१४. उवसम दया य खंती वड्ढइ वेरग्गदा य जह जहसो ।
तह तह य मोक्खसोक्खं अक्खीणं भावियं होइ । । ( मू० ७५३)
मनुष्य
शांति, दया, क्षमा, वैराग्य भाव ये सब जैसे-जैसे बढ़ते जाते हैं वैसे-वैसे इस जीव के अविनाशी मोक्ष-सुख अनुभव - गोचर होता जाता है ।
१६. जह जीवो कुणइ रई पुत्तकलत्तेसु कामभोगेसु । तह जइ जिणिदधम्मे तो लीलाए सुहं लहदि । ।
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पहले तो जीव धर्म को जानता ही नहीं है अथवा किसी तरह बड़े कष्ट से जान भी जाता है तो मोह-पिशाच से भ्रमित किया हुआ करने में समर्थ नहीं होता है ।
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( द्वा० अ० ४२६)
(द्वा० अ० ४२७)
जैसे यह जीव पुत्र कलत्र तथा कामभोग में रति करता है वैसे ही यदि वह जिनेन्द्रप्ररूपित धर्म में करे तो लीलामात्र में सुख को प्राप्त हो ।
१७. लच्छिं वंछेइ णरो णेव सुधम्मेसु आयरं कुणइ ।
वीण विणा कुत्थ वि किं दीसदि सस्सणिप्पत्ती ।। ( द्वा० अ० ४२८ )
१८. तां सव्वत्थ वि कित्तो ता सव्वस्स वि. हवेइ वीसासो । ता सव्वं पिय भासइ ता सुद्धं माणसं कुणई । ।
यह जीव लक्ष्मी को चाहता है पर अच्छे-अच्छे धर्म में आदर-बुद्धि नहीं करता । क्या बीज के बिना भी कहीं धान्य की उत्पत्ति दिखाई देती है ?
( द्वा० अ० ४३० )