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________________ २४६ महावीर वाणी १२. धर्म भावना १. धम्मो मंगलमुक्किहँ अहिंसा संजमो तवो। देवा वि तं नमसंति जस्स धम्मे सया मणो।। (द० १ : १) धर्म उत्कृष्ट मंगल है। अहिंसा, तप और संजम उसके लक्षण हैं। जिसका मन सदा धर्म में रहता है, उसे देव भी नमस्कार करते हैं। २. पच्छा वि ते पयाया खिप्पं गच्छंति अमर-भवणाई। जेसि पिओ तवो संजमो य खंती बभचेरं च।। ___ (द० ४ : २७ के बाद) जिन्हें तप, संजम, क्षमा और ब्रह्मचर्य प्रिय हैं, वे शीघ्र ही स्वर्ग को प्राप्त करते हैं, फिर भले ही उन्होंने पिछली अवस्था में संयम ग्रहण किया हो। ३. इमं च मे अत्थिं इमं च नत्थि इमं च मे किच्च इमं अकिच्चं । तं एवमेवं लालप्पमाणं हरा हरंति त्ति कहं पमाए ? (उ० १४ : १५) यह मेरे पास है और यह मेरे पास नहीं है, यह मुझे करना है और यह मुझे नहीं करना है-ऐसा विचार करते-करते ही कालरूपी चोर प्राणों को हर लेता है। फिर यह प्रमाद क्यों ? ४. जस्सत्थि मच्चुणा सक्खं जस्स वऽत्थि पलायणं । जो जाणे न मरिस्सामि सो दु कंखे सुर सिंया।। (उ० १४ : २७) जिस मनुष्य की मृत्यु से मैत्री हो, जो उसके पंजे से भागकर निकलने का सामर्थ्य रखता हो, जो 'नहीं मरूँगा' यह निश्चय रूप से जानता हो, वही आगामी काल का भरोसा कर सकता है। ५. अज्जेव धम्म पडिवज्जयामो जहि पवन्ना न पुणब्भवामो। अणागयं नेव य अस्थि किंचि सद्धाखमं णे विणइत्तु रागं।। _ (उ० १४ : २८) हम आज ही धर्म अंगीकार करेंगे, जिसे प्राप्त करने पर पुनर्भव नहीं होता। ऐसा कोई पदार्थ नहीं, जो अप्राप्त हो-जिसे हमने नहीं भोगा । श्रद्धा हमें राग से मुक्त करेगी। ६. जरा जाव न पीलेइ वाही जाव न वड्ढई। जाविंदिया न हायंति ताव धम्मं समायरे।। (द० ८ : ३५) जरा जब तक पीड़ित नहीं करती, व्याधि जब तक नहीं बढ़ती, इन्द्रियाँ जब तक हीन (शिथिल) नहीं होती, वहाँ तक धर्म का भलीभाँति आचरण कर।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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