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३१. भावनायोग
२४५ ४. इत्तो विद्धंसमाणस्स पुणो संवोहि दुल्लभा।
दुल्लभाओ तहच्चाओ जे धम्मठें वियागरे ।। (सू० ३, १५ : १८)
इस मनुष्य-शरीर से जो भ्रष्ट होता है, उसके लिए पुनः मनुष्यदेह पाना सरल नहीं होता। उसके बिना संबोधि दुर्लभ होती है और ऐसी लेश्या या चित्तवृत्ति भी दुर्लभ होती है, जो धर्म की आराधना के योग्य व्यक्तियों की होती है। ५. उप्पज्जदि सण्णाणं जेण उवाएण तस्सुवायस्स।
चिंता हवेइ बोही अच्चंतं दुल्लं होदि ।। (कुन्द० अ० ८३)
जिस उपाय से सम्यग्ज्ञान उत्पन्न होता है, उस उपाय की चिंता होती है, क्योंकि सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है। ६. संसारह्मि अणंते जीवाणं दुल्लहं मणुस्सत्तं ।
जुगसमिलासंजोगो लवणसमुद्दे जहा चेव ।। (मू० ७५५)
इस अनन्त संसार में जीवों के लिए मनुष्य-जन्म का मिलना वैसा ही दुर्लभ है जैसा कि लवण-समुद्र में युग और समिलाका संयोग।। ७. लद्धेसुवि एदेसु अ बोधी जिणसासणमि ण हु सुलहा।
कुपहाणमाकुलत्ता जं बलिया रागदोसा य।। (मू० ७५७)
मनुष्य जन्म के मिलने पर भी जिन-शासन में सम्यश्रद्धा सुलभ नहीं है, क्योंकि कुमार्गों की आकुलता से यह जगत् आकुल हो रहा है। उसमें राग-द्वेष ये दोनों बलवान हैं।
८. सेयं भवभयमहणी बोधी गुणवित्थडा मए लद्धा।
जदि पडिदा ण हु सुलहा तमा ण खमं पमादो में।। (मू० ७५८)
संसार के भय को नाश करनेवाली सब गुणों की आधारभूत यह बोधि मैंने पाई है। वह कदाचित् संसार-समुद्र में हाथ से छूट गई तो फिर निश्चय ही उसका मिलना सुलभ नहीं है। अतः मेरे लिए प्रमाद करना उचित नहीं है। ६. दुल्लहलाहं उद्धृण बोधिं जो णरो पमादेज्जो।।
सो पुरिसो कापुरिसो सोयदि कुगदिं गदो संतो।। (मू० ७५६)
जो मनुष्य दुर्लभ बोधि को प्राप्त कर प्रमाद करता है वह कापुरुष है और कुगति को प्राप्त हो दुखी होता है।