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________________ २४४ महावीर वाणी १८. कारी होइ अकारी अप्पडिभोगो जणो हु लोगम्मि। कारी वि जणसमक्खं होइ अकारी सपडिभोगो।। (भग० आ० १८०६) लोक में पुण्यहीन मनुष्य अपराध नहीं करता हुआ भी अपराधी हो जाता है और पुण्यवान जीव अपराध करता हुआ भी निरपराधी लोगों के समान होता है। १६. विज्जू व चंचलं फेणदुब्बलं वाधिमहियमच्चुहदं । ___णाणी किह पेच्छंतो रमेज्ज दुक्खधुदं लोग।। (भग० आ० १८१२) बिजली के समान चंचल, फेन की तरह दुर्बल, व्याधियों से मथित, दुःखों से कंपित और मृत्यु से उपद्रूत लोक को देखता हुआ ज्ञानी कैसे उसमें रति कर सकता है ? ११. दुर्लभबोधि भावना १. संबुज्झह किण्ण बुज्झहा संवोही खलु पेच्च दुल्लहा। णो हूवणमंति राइयो णो सुलभं पुणरावि जीवियं ।। (सू० १, २ (१) : १) बोध प्राप्त करो। क्यों नहीं बोध प्राप्त करते ? मनुष्य-भव बीत जाने पर परभव में सम्बोधि निश्चय ही दुर्लभ है। बीती हुई रातें नहीं फिरती और न मनुष्य-जीवन पुनः सुलभ होता है। २. बुज्झाहि जंतू ! इह माणवेसु दटुं भयं बालिएणं अलंभे । एगंतदुक्खे जरिए हु लोए सकम्मुणा विप्परियासुवेति ।। (सू० १, ७ : ११) हे जीव ! चारों गतियों में केवल भय है। विवेकहीन जीव को शीघ्र बोध नहीं होता । यह देखकर मनुष्य-भव में संबोध को प्राप्त करो। यह संसार ज्वराक्रान्त की तरह एकांत दुःखी है। जीव अपने कृत्यों से ही संसार में पर्यटन करता है। ३. अंतं करेंति दुक्खाणं इहमेगेसि आहितं। आघातं पुण एगेसिं दुल्लभेऽयं समुस्सए।। (सू० १, १५ : १७) कइयों का कथन है कि देव ही दुःखों का अन्त कर सकते हैं, ज्ञानियों का कथन है कि यह मनुष्यदेह दुर्लभ है। (जो प्राणी मनुष्य नहीं वे अपने समस्त दुःखों का नाश नहीं कर सकते)।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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