________________
३१. भावनायोग
१२. विरला णिसुणहि तच्चं विरला जाणंति तच्चदो तच्चं । विरला भावहि तच्चं विरलाणं धारणा
होंदि । ।
संसार में विरले ही पुरुष तत्त्व को सुनते हैं, सुनकर भी तत्त्व को यथार्थ रूप से विरले ही जानते हैं, जानकर भी विरले ही तत्त्व की भावना (अभ्यास) करते हैं। भावना करने पर भी तत्त्व की धारणा विरलों के ही होती है।
( द्वा० अ० २७६)
१३. तच्चं कहिज्जमाणं णिच्चलभावेण गिण्हदे जो हि ।
तं चिय भावेदि सया सो वि य तच्चं वियाई ।। (द्वा० अ० २८०)
जो पुरुष प्ररूपित तत्त्वों के स्वरूप को निश्चल भाव से ग्रहण करता है, उसकी निरन्तर भावना करता है वही पुरुष तत्त्व को जानता है।
१४. को ण वसो इत्थिजणे कस्स ण मयणेण खंडियं माणं । को इंदिएहिं ण जिओ को ण कसाएहिं
संतत्तो ।।
१५. सो ण वसो इत्थिजणे सो ण जिओ इंदिएहि जो ण य गिण्हदि गंथं अब्भंतरबाहिरं
२४३
इस लोक में स्त्रीजन के वश में कौन नहीं हुआ ? काम से जिसका मन खंडित नहीं हुआ हो वह कौन है ? जो इन्द्रियों से न जीता गया हो से संतप्त न हुआ हो वह कौन है ?
वह कौन है ? कषायों
( द्वा० अ० २८१)
मोहेण ।
१७. सरिसीए चंदिगाये कालो वेस्सो पिओ जहा सरिसे वि तहाचारे कोई वेस्सो पिओ
सव्वं । ।
( द्वा० अ० २८२)
जो पुरुष तत्त्व का स्वरूप जानकर बाह्य और अभ्यन्तर सब परिग्रह का ग्रहण नहीं करता वह पुरुष स्त्रीजन के वश में नहीं होता है। वही पुरुष इन्द्रियों से और मोह से पराजित नहीं होता है।
१६. एवं लोयसहावं जो झायदि उवसमेक्कसभाओ ।
सो खविय कम्मपुंजं तिल्लोय सिहामणी होदि । । ( द्वा० अ० २८३)
जो पुरुष इस प्रकार लोक के स्वरूप को उपशम से एक स्वभाव-रूप होता हुआ ध्याता है वह पुरुष कर्म-पुंज का क्षय करके उसी लोक का शिखामणि होता है ।
जोहो । कोई ||
(भग० आ० १८१०)
चाँदनी समान होने पर भी जैसे कृष्णपक्ष द्वेष्य और शुक्लपक्ष प्रिय होता है वैसे ही आचरण समान होने पर भी कोई द्वेष्य और कोई प्रिय होता है ।