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________________ २४२ महावीर वाणी ५. परिणामसहावादो पडिसमयं परिणमंति दव्वाणि। तेसिं परिणामादो लोयस्स वि मुणह परिणामं ।। (द्वा० अ० ११७) । द्रव्य परिणाम-स्वभावी है इसलिए प्रति समय परिणाम करते रहते हैं। उनके परिणाम के कारण लोक को भी परिणामी जानो। ६. दीसंति जत्थ अत्था जीवादीया स भण्णदे लोओ। तस्स सिहरम्मि सिद्धा अंतविहीणा विरायंते ।। (द्वा० अ० १२१) जहाँ जीवादिक पदार्थ देखे जाते हैं वह लोक कहलाता है। उसके शिखर पर अन्तरहित सिद्ध विराजमान हैं। ७. एइंदिएहिं भरिदो पंचपयारेहिं सव्वदो लोओ। तसणाडिए वि तसा ण बाहिरा होंति सव्वत्थ।। (द्वा० अ० १२२) यह लोक पाँच प्रकार के एकेन्द्रिय जीवों से सब जगह भरा हुआ है। त्रसजीव त्रस-नाड़ी में ही है, बाहर नहीं है। ८. तत्थणुहवंति जीव सकम्मणिव्वत्तियं सुहं दुक्खं । जम्मणमरणपुणब्भवमणंतभवसायरे भीमे ।। (मू० ७१५) उस लोक में ये जीव अपने कर्मों से उपार्जित सुख-दुःख को भोगते हैं और इस अनन्त भवसागर में जन्म-मरण का बार-बार अनुभव करते हैं। ६. मादा य होदि धूदा धूदा मादुत्तणं पुण उवेदि । पुरिसोवि तत्थ इत्थी पुमं च अपुमं च होइ जगे।। (मू० ७१६) इस संसार में माता पुत्री हो जाती है और पुत्री माता हो जाती है। पुरुष स्त्री हो जाता है और स्त्री पुरुष और नपुंसक हो जाती है। १०. होऊण तेयसत्ताधिओ दु बलविरियरूवसंपण्णो। जादो वच्चघरे किमि धिगत्यु संसारवासस्स ।। (मू० ७१७) तेज और सत्ता में अधिक, बल, वीर्य, रूप से सम्पन्न राजा भी कर्मवश अशुचि स्थान में कृमि के रूप में उत्पन्न होता है इसलिए ऐसे संसार में रहने को धिक्कार है। ११. धिग्भवदु लोगधम्मं देवावि य सुरवदीय महधीया। भोत्तूण य सुहमतुलं पुणरवि दुक्खावहा होति।। (मू० ७१८) लोक के स्वभाव को धिक्कार हो जिससे कि देव और महान ऋद्धिवाले इन्द्र भी अनुपम सुख को भोगकर बाद में पुनः दुःख के भोगनेवाले होते हैं।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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