SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 266
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४१ ३१. भावनायोग ६. जो समसोक्खणिलीणो वारं वारं सरेइ अप्पाणं । इंदियकसायविजई तस्स हवे णिज्जरा परमा।। (द्वा० अ० ११४) जो वीतराग भावरूप-साम्यरूप-सुख में लीन होकर बार-बार आत्मा का स्मरण करता है तथा इन्द्रिय और कषायों को जीतता है उसके उत्कृष्ट निर्जरा होती है। १०. णिज्जरियसव्वकम्मो जादिजरामरणबंधणविमुक्को। पावदि सुक्खमणंतं णिज्जरणं तं मणसि कुज्जा।। (मू० ७४६) उसके बाद सब कर्मों से रहित हो जन्म, जरा और मरणरूपी बंधनों से रहित हुआ जीव अतुल सुख को प्राप्त होता है। इन सब कारणों से मन में निर्जरा भावना का चिंतन करना चाहिए। १०. लोक भावना १. सव्वायासमणंतं तस्स य बहुमज्झसंठियो लोओ। सो केण वि णेय कओ ण य धरिओ हरिहरादीहिं।। (द्वा० आ० ११५) आकाश अनन्त है, उसके बहुमध्यप्रदेश में स्थित लोक है। वह किसी के द्वारा बनाया हुआ नहीं है तथा किसी हरिहरादि के द्वारा धारण किया हुआ नहीं है। २. लोगो अकिट्टिमो खलु अणाइणिहणे सहावणिप्पण्णो। जीवाजीवेहिं भुडो णिच्चो तालरुक्खसंठाणो।। (मू० ७१२) यह लोक अकृत्रिम है, अनादि निधन है, अपने स्वभाव से ही निष्पन्न है, जीवअजीव द्रव्यों से भरा हुआ है, नित्य है और ताड़वृक्ष के आकार का है। ३. धम्माधम्मागासा गदिरागदि जीवपुग्गलाणं च। जावत्तावल्लोगो आगासमदो परमणंतं ।। (मू० ७१३) जहाँ धर्म द्रव्य, अधर्म, द्रव्य है और लोकाकाश है और जितने में जीव द्रव्य और पुद्गलों का गमन-आगमन है उतना ही लोक है। इसके बाद केवल अनन्त आकाश है, उसको अलोकाकाश कहते हैं। ४. अण्णोण्णपवेसेण य दव्वाणं अत्छणं हवे लोओ। दव्वाणं णिच्चत्तो लोयस्स वि मुणह णिच्चत्तं ।। (द्वा० अ० ११६) जीवादिक द्रव्यों का एक-दूसरे में प्रवेश करने का स्थान लोक है। द्रव्य नित्य हैं, इसलिए लोक को भी नित्य जानो।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy