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________________ २४० महावीर वाणी ३. वारसविहेण तवसा णियाणरहियस्स णिज्जरा होदि। वेरग्गभावणादो णिरहंकारस्स णाणिस्स ।। (द्वा० अ० १०२) निदानरहित, अहंकाररहित ज्ञानी के बारह प्रकार के तप से तथा वैराग्य भावना से निर्जरा होती है। ४. उवसमभावतवाणं जह जह वड्ढी हवेइ साहूणं। तह तह णिज्जरवड्ढी विसेसदो धम्मसुक्कादो।। (द्वा० अ० १०५) मुनियों के जैसे-जैसे उपशम भाव तथा तप की वृद्धि होती है वैसे-वैसे ही निर्जरा की वृद्धि होती है। धर्मध्यान ओर शुक्लध्यान से निर्जरा की विशेषता से वृद्धि होती है। ५. जो विसहदि दुब्बयणं साहम्मियहीलणं च उपसग्गं । जिणिऊण कसायरिउं तस्स हवे णिज्जरा विउला ।। (द्वा०अ० १०६) जो कषायरूपी वैरी को जीतकर दुर्वचनों को सहन करता है, जो साधर्मी द्वारा किये गये अनादर को सहता है, जो उपसर्गों को सहन करता है, उसके विपुल निर्जरा होती है। ६. जो चिंतेइ सरीरं ममत्तजणयं विणस्सरं असुई। दंसणणाणचरित्तं सुहजणयं णिम्मलं णिच्चं ।। (द्वा० अ० १११) जो शरीर को ममत्व उत्पन्न करनेवाला, नश्वर तथा अपवित्र मानता है और सुख को उत्पन्न करनेवाले निर्मल तथा नित्य दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूपी आत्मा का चिंत्तन करता है, उसके विपुल निर्जरा होती है। ७. अप्पाणं जो जिंदइ गुणवंताणं करेइ बहुमाणं। मणइंदियाण विजई स सरूवपरायणो होउ।। (द्वा० अ० ११२) जो अपने किये हुए दुष्कृत की निंदा करता है, गुणवान पुरुषों का बहुमान करता है, अपने मन और इन्द्रियों को जीतनेवाला होता है, वह अपने स्वरूप में तत्पर होता है। उसके विपुल निर्जरा होती है। ८. तस्स य सहलो जम्मो तस्स वि पावस्स णिज्जरा होदि । तस्स वि पुण्णं वड्ढदि तस्स य सोक्खं परो होदि ।। (द्वा० अ० ११३) । जो ऐसे निर्जरा के कारणों में प्रवृत्ति करता है उसीका जन्म सफल है। उसी के पाप-कर्म की निर्जरा होती है। उसीके पुण्य-कर्म का अनुभाग बढ़ता है उसीको उत्कृष्ट सुख प्राप्त होता है।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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