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________________ ३१. भावनायोग २३६ यतनाचार रहित जीवों के क्रोध आदि द्वारा जो कर्म आते हैं उनको प्रमादरहित ज्ञानी जीव क्रोधादि के प्रतिपक्षी उत्तम क्षमादि धर्मों से रोक देते हैं। ८. मिछत्ताविरदीहिं य कसायजोगेहिं जं च आसवदि। दंसणविरमणणिग्गहणिरोधणेहिं तु णासवदि।। (मू० २४१) मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योगों से जो कर्म आते हैं, वे कर्म सम्यग्दर्शन, विरति, क्षमादिभाव और योगनिरोध से नहीं आने पाते-रुक जाते हैं। ६. एदे संवरहे, वियारमाणो वि जो ण आयरइ। सो भमइ चिरं कालं संसारे दुक्खसंतत्तो।।, (द्वा० अ० १००) ___ जो पुरुष इन (सम्यक्त्व, व्रत आदि संवर के हेतु का विचार करता हआ भी आचरण नहीं करता है, वह दुःखों से संतप्तमान होकर बहुत समय तक संसार में भ्रमण करता है। १०. जो पुण विसयविरत्तो अप्पाणं सव्वदो वि संवरइ। मणहरविसएहिंतो तस्स फुडं संवरो होदि ।। (द्वा० अ० १०१) जो इन्द्रियों के विषयों से विरक्त होता हुआ मन को प्रिय लगनेवाले विषयों से आत्मा को सदा दूर रखता है, उसके प्रगट रूप से संवर होता है। ११. संवरफलं तु णिव्वाणमिति संवरसमाधिसंजुत्तो। णिच्चुज्जुत्तो भावय संवर इणमो विसुद्वप्पा।। (मू० ७४३) संवर का फल मोक्ष है। अतः संवर-समाधि से युक्त विशुद्धात्मा सदा यतनापूर्वक इस संवर की भावना करे। ६. निर्जरा भावना १. पुवकदकम्मसडणं तु णिज्जरा सा पुणो हवे दुविहा। पढमा विवागजादा बिदिया अविवागजादा य।। (मू० २४५) पूर्व किये हुए कर्मों का जो झड़ जाना है वह निर्जरा है। उसके दो भेद हैं। पहली निर्जरा विपाकजा है और दूसरी अविपाकजा। २. कालेण उवाएण य पच्चंति जधा वणप्फदिफलाणि। तध कालेण उवाएण य पच्चंति कदा कम्मा।। (मू० २४६) जैसे वनस्पति-फल अपने-अपने समय से तथा उपाय द्वारा जल्दी भी पक जाते हैं उसी तरह किये हुए कर्म अपने-अपने समय पर अथवा तप के उपाय द्वारा पहले भी फल देकर झड़ जाते हैं।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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