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________________ २३८ महावीर वाणी ८. संवर भावना १. तिउट्टती उ मेहावी जाणं लोगंसि पावगं । तुटुंति पावकम्माणि णवं कम्ममकुव्वओ।। (सू० १, १५ : ६) पाप कर्म को जाननेवाला बुद्धिमान पुरुष संसार में रहता हुआ भी पाप से छुट जाता है। जो पुरुष नए कर्म नहीं करता, उसके सभी पाप-कर्म छूट जाते हैं। २. जं मतं सव्वसाहूणं तं मतं सल्लगत्तणं । साहइत्ताण तं तिण्णा देवा वा अभविंसु ते।। (सू० १, १५ : २४) सर्व साधुओं को मान्य जो संयम है, वह पाप को नाश करनेवाला है। इस संयम की आराधना कर बहुत जीव संसार-सागर से पार हुए हैं और बहुतों ने देवभव को प्राप्त किया है। ३. अकव्वओ णवं णत्थि कम्मं णाम विजाणतो। णच्चाण से महावीरे जे ण जाई ण मिज्जती।। (सू० १, १५ : ७) जो नहीं करता उसके नए कर्म नहीं बँधते । कर्मों को जाननेवाला महावीर पुरुष उनकी स्थिति और अनुभाग आदि को जानता हुआ ऐसा करता है, जिससे वह संसार में न तो कभी उत्पन्न होता है और न कभी मरता है। ४. मिच्छत्तं अविरमणं कसायजोगा य आसवा होंति। अरिहंतवुत्तअत्थेसु विमोहो होइ मिच्छत्तं ।। (मू० २३७) मिथ्यात्व, अविरति, कषाय योग-वे आस्रव अर्थात् कर्मों के आगमन के हेतु हैं। अर्हन्तकथित पदार्थों में विमोह-संशयादि करना मिथ्यात्व है। ५. अविरमणं हिंसादी पंचवि दोसा हवंति णादव्वा। कोधादीय कसाया जोगो जीवस्स चिट्ठा दु।। (मू० २३८) हिंसा आदि पाँच दोषों के अत्याग को अविरति जानना। क्रोधादि चार कषाय हैं और जीव की क्रिया को योग कहते हैं। ६. मिच्छत्तासवदारं रुंभइ सम्मत्तदढकवाडेण । हिंसादिदुवारणिवि दढवदफलिहेहिं रुभंति ।। (मू० २३६) विवेक शील जीव मिथ्यात्वरूप आस्रवद्वार को सम्यक्त्वरूप दृढ़ कपाट से रोक देते हैं और हिंसादि अविरतिरूप आस्रवद्वार को दृढ़ पंचव्रत-रूप फलक से रोकते हैं। ७. आसवदि जं तु कम्मं कोधादीहिं तु अयदजीवाणं । तप्पडिवक्खेहिं विदु रुंधति तमप्पमत्ता दु।। (मू० २४०)
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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