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३१. भावनायोग
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कर्म पुण्य और पाप के भेद से दो प्रकार के हैं और उनके कारण भी सत् और असत् दो प्रकार के होते हैं। उनमें मंदकषाय रूप परिणाम तो प्रशस्त हैं और तीव्र कषाय रूप परिणाम अप्रशस्त। ११. एवं जाणंतो वि हु परिचयणीए वि जो ण परिहरइ।
तस्सासवाणुपिक्खा सव्वा वि णिरत्थया होदि ।। (द्वा० अ० ६३)
इस प्रकार से प्रत्यक्ष रूप से जानता हुआ भी जो त्यागने योग्य परिणामों को नहीं छोड़ता है, उसके आस्रव का सारा चिंतन निरर्थक है। १२. एदे मोहयभावा जो परिवज्जेइ उवसमे लीणो।
हेयमिदि मण्णमाणो आसवअणुवेहणं तस्स।। (द्वा० अ० ६४)
जो पुरुष उपशम परिणामों में लीन होकर उन मोह से उत्पन्न मिथ्यात्वादिक परिणामों को हेय मानता हुआ छोड़ता है, उसकी आस्रवानुप्रेक्षा कार्यकारी होती है। १३. दुक्खभयमीणपउरे संसारमहण्णवे परमघोरे।
जंतू जं तु णिमज्जदि कम्मासवहेदुयं सव्वं ।। (मू० ७२७)
दुःख और भयरूपी मत्स्य जिसमें बहुत हैं ऐसे अत्यंत भयंकर संसार-समुद्र में यह प्राणी जिस कारण से डूबता है वह कर्मास्रव है। १४. रागो दोसो मोहो इंदियसण्णा य गारवकसाया।
मणवयणकायसहिदा दु आसवा होति कम्मस्स ।। (मू० ७२८)
राग, द्वेष, मोह, पाँच इन्द्रियाँ, आहारादि संज्ञा, ऋद्धि आदि गौरव, क्रोधादि कषाय, मन, वचन, काय की क्रिया सहित ये सब आस्रव हैं, इनसे कर्म आते हैं। १५. हिंसादिएहिं पंचहिं आसवदारेहिं आसवदि पावं।
तेहिंतो धुव विणासो सासवणावा जह समुद्दे ।। (मू० ७३६)
हिंसा, असत्य आदि पाँच आस्रवों के द्वार से पाप-कर्म आता है और उनसे निश्चय कर जीवों का नाश होता है। जैसे छिद्रसहित नाव समुद्र में डूब जाती है, इसी तरह कर्मास्रवों से जीव भी संसार-समुद्र में डूबता है। १६. संसारसागरे से कम्मजलमसंवुडस्स आसवदि।
आसवणीणावाए जह सलिलं उदधिमज्झम्मि।। (भग० आ० १८२२)
संवररहित जीव में संसाररूपी सागर में कर्मरूपी जल का आस्रव होता है, जैसे समुद्र में चूनेवाली नौका में पानी का आस्रव ।