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________________ २३६ महावीर वाणी जो अज्ञानी हैं, वे कर्म द्वारा कर्मों का क्षय नहीं कर सकते। जो धीर पुरुष हैं, वे अकर्म से-आस्रवों को रोककर-कर्मों का क्षपण करते हैं। ५. ते तीतउप्पण्णमणागयाइं लोगस्स जाणंति तहागताई। णेतारो अण्णेसि अणण्णणेया बुद्धा हु ते अंतकडा भवंति ।। (सू० १, १२ : १६) उपर्युक्त भावों को जिन्होंने कहा है, वे जीवों के भूत, वर्तमान और भविष्य को जाननेवाले, जगत् के नेता, अनन्य नेता और संसार का अंत करनेवाले ज्ञानी पुरुष हैं। ६. जम्मसमुद्दे बहुदोसवीचिये दुक्खजलचराकिण्णे। जीवस्य परिभमणं कम्मासवकारणं होदि।। (कुन्द० अ० ५६) यह जन्म-मरण रूपी समुद्र बहुत दोषरूपी लहरों से और दुःखरूपी जलचरों से व्याप्त है, जिसमें जीव का परिभ्रमण कर्मों के आस्रव के कारण होता है। ७. कम्मासवेण जीवो बूडदि संसारसागरे घोरे। जण्णाणवसं किरिया मोक्खणिमित्तं परंपरया।। (कुन्द० अ० ५७) कर्मों के आस्रव के कारण जीव संसाररूपी भयानक समुद्र में डूब जाता है। जो क्रिया ज्ञानपूर्वक की जाती है, वह परम्परा से मोक्ष का कारण होती है। .. ८. मणवयणकायजोया जीवपएसाणफंदणविसेसा। मोहोदएण जुत्ता विजुदा वि य आसवा होति।। (द्वा० अ० ८८) मन, वचन, काय-ये योग हैं। जीव के प्रदेशों का स्पंदन विशेष योग है। वे ही आस्रव हैं। योग मोह के उदय सहित हैं और मोह के उदय से रहित भी। ६. मोहविभागवसादो जे परिणामा हवंति जीवस्स। ते आसवा मुणिज्जसु मिच्छत्ताई अणेयविहा।। (द्वा० अ० ८६) मोह के उदय से जो परिणाम इस जीव के होते हैं, वे ही आस्रव हैं। तू ऐसा जान। वे परिणाम मिथ्यात्व को आदि लेकर अनेक प्रकार के हैं। १०. कम्मं पुण्णं पावं हेउं तेसिं च होंति सच्छिदरा। मंदकसाया सच्छा तिव्वकसाया असच्छा हु।। (द्वा० अ० ६०) १. भग० आ० १८२१।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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