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३१. भावनायोग
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हे पुरुष ! बाल्यकाल में अज्ञानी होने से तू विष्ठा आदि अपवित्र पदार्थों के बीच से लौटा है और बालपन होने से तूने अनेक बार अपवित्र वस्तुओं को खाया है। १६. मंसट्ठिसुक्कसोणियपित्तंतसवत्तकुणिमदुग्गंधं। __ खरिसवसपूयखिभिसभरियं चिंतेहि देहउडं।। (भा० पा० ४२)
हे पुरुष ! मांस, हड्डी, वीर्य, रुधिर, पित्त और आँत से बहनेवाली शव के समान दुर्गन्धित तथा खंखार, चर्बी और अपवित्र गन्दगी से भरे हुए इस शरीर-रूपी घड़े के स्वरूप पर विचार कर।
७. आसव भावना १. ते चक्खु लोगस्सिह णायगा उ मग्गाणुसासंति हियं पयाणं । तहा तहा सासयमाहु लोए जंसी पया माणव! संपगाढा ।।
(सू० १, १२ : १२) अतिशय ज्ञानी वे तीर्थंकर आदि लोक के नेत्र के समान हैं। वे धर्म.नायक हैं। वे प्रजाओं को कल्याण-मार्ग की शिक्षा देते हैं। वे कहते हैं-“हे मनुष्य ! ज्यों-ज्यों मिथ्यात्व आदि बढ़ता है, त्यों-त्यों संसार भी शाश्वत होता जाता है। संसार की वृद्धि इस तरह होती है, जिसमें नाना प्राणी निवास करते हैं।'
२. जे रक्खसा जे जमलोइया वा जे आसुरा गंधव्वा य काया। ____ आगासगामी य पुढोसिया ते पुणो पुणो विप्परियासुति।।
(सू० १, १२ : १३) जो राक्षस हैं, जो यमपुरवासी हैं, जो देवता हैं, जो गन्धर्व हैं, जो आकाशगामी व पृथ्वी-निवासी हैं वे सब मिथ्यात्व आदि कारणों से ही बार-बार भिन्न-भिन्न गतियों में जन्म धारण करते हैं। ३. जमाहु ओहं सलिलं अपारगं जाणाहि णं भवगहणं दुमोक्खं । जंसी विसण्णा विसयंगणाहि दुहतो वि लोयं अणुसंचरंति ।।
(सू० १, १२ : १४) जिस संसार को अपार सलिल वाले स्वयंभूरमण समुद्र की उपमा दी गई है, वह भिन्न-भिन्न योनियों के कारण बड़ा ही गहन और दुस्तर है। विषय और स्त्रियों में आसक्त जीव स्थावर और जंगम दोनों ही प्रकार से जगत् में बार-बार भ्रमण करते हैं। ४. ण कम्मुणा कम्म खवेंति बाला अकम्मुणा कम्म खति धीरा।
(सू० १, १२, : १५)