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________________ महावीर वाणी जो भव्य परदेह से विरक्त होकर अपने शरीर में अनुराग नहीं करता है तथा अपने आत्मस्वरूप में अनुरक्त रहता है, उसकी अशुचि भावना सफल है ६. देहादो वदिरित्तो कम्मविरहिओ अणंतसुहणिलयो । 1 चोखो हवेइ अप्पा इदि णिच्चं भावणं कुज्जा ।। (कुन्द० अ० ४६ ) २३४ देह से भिन्न, कर्मों से रहित और अनन्त सुख का भण्डार आत्मा ही श्रेष्ठ है, इस प्रकार सदा चिन्तन करना चाहिए | १०. मंसट्ठिसिभवसरुहिरचम्मपित्तंतमुत्तकुणिपकुडिं । बहुदुक्खरोगभायण सरीरमसुभं वियाणाहि ।। (मू० ७२४) मांस, हाड़, कफ, मेद, रक्त, चाम, पित्त, आंत, मूत्र, मल इनका घर तथा बहुत दुःख और रोगों के पात्र शरीर को तुम अशुभ जानो । ११. अत्थं कामसरीरादिगंपि सव्वमसुभत्ति णाऊण । णिव्विज्जंतो झायसु जह जहसि कलेवरं असुरं । । (मू० ७२५) अर्थ, काम, शरीरादि ये सभी अशुभ हैं। ऐसा जानकर निर्वेद को प्राप्त हुआ तू वैराग्य का इस तरह ध्यान कर कि इस अशुचि शरीर को सदा के लिए छोड़ सके । १२. एदारिसे सरीरे दुग्गंघे कुणिवपूदियमचोक्खे | सडणपडणे असारे रागं ण करिति सप्पुरिसा ।। (मू० ८५०) दुर्गंधयुक्त अशुचिद्रव्य से भरे, स्वच्छतारहित, सड़न - गलन युक्त साररहित शरीर से सुपुरुष प्रेम नहीं करते । १३. पित्तंत-मुत्त- फेफस - कालिज्जय- रुहिर- खरिस - किमिजाले । वसिओसि चिरं नवदसमासेहिं पत्तेहिं । । उयरे (भा० पा० ३६) पुरुष ! तू पित्त, आंत, मूत्र, फेफड़ा, जिगर, रुधिर, खँखार और कीड़ों से भरे हुए उदर में बहुत बार नौ-दस मास तक रहा है । १४. दियसंगट्ठियमसणं आहारिय मायभुत्तमण्णंते । छद्दिखरिसाण मज्झे जठरे वसिओसि जणणीए । । ( भा० पा० ४० ) दाँतों के संसर्ग में स्थित भोजन को ग्रहण करके तूने माता के द्वारा खाये गए अन्न को खाया है और उदर में वमन और खंखार के बीच में निवास किया है। १५. सिसुकाले य अयाणे असुईमज्झम्मि लोलिओसि तुमं । असुई असिया बहुसो मुणिवर ! वालत्तपत्तेण ।। ( भा० पा० ४१)
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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