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३१. भावनायोग
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संसार और भोगों से वैराग्य को प्राप्त हुए पुरुष इस शरीर को हड्डी, चमड़ा, माँस, पित्त, कफ, रक्त इत्यादि अपवित्र वस्तुओं का समूह-रूप देखते हैं। ३. अट्ठीहिं पडिबद्धं मंसविलित्तं तएण ओच्छण्णं।
किमिसंकुलेहि भरिदमचोक्खं देहं सयाकालं ।। (कुन्द० अ० ४३)
यह शरीर हड्डियों से बँधा हुआ है, माँस से लिपटा हुआ है, चर्म से ढंका है और कीट-समूहों से भरा है, अतः सदा अशुचि है। ४. दुग्गंधं बीभत्थं कलिमलभरिदं अचेयणं मुत्तं ।
सडणप्पडणसहावं देहं इदि चिंतये णिच्चं।। (कुन्द० अ० ४४)
यह शरीर दुर्गन्ध से युक्त है, वीभत्स है, कलुषित मल से भरा हुआ है, अचेतन है, मूर्तिक है तथा अवश्य ही सड़न-गलन नष्ट होनेवाले स्वभाव से युक्त है, सदा ऐसा विचारना चाहिए।
५. सुट्ठ पवित्तं दव् सरससुगंधं मणोहरं जं पि। .. देहणिहित्तं जायदि घिणावणं सुठ्ठदुग्गंधं ।। (द्वा० अ० ८४)
इस शरीर में डाले गये अत्यन्त पवित्र, सरस, सुगंधित और मन को हरनेवाले द्रव्य भी घिनौने तथा अत्यन्त दुर्गंधित हो जाते हैं। ६. मणुआणं असुइमयं विहिणा देहं विणिम्मियं जाण।
तेसिं विरमणकज्जे ते पुण तत्थेव अणुरत्ता।। (द्वा० अ० ८५)
हे भव्य ! यह मनुष्यों का देह कर्म के द्वारा अशुचिमय रचा गया है, ऐसा जान । मानो यह देह ऐसा इन मनुष्यों में वैराग्य उत्पन्न होने के लिए ही रचा गया हो। परन्तु आश्चर्य है कि मनुष्य इस अशुचि शरीर में भी अनुरक्त है। ७. एवंविहं पि देहं पिच्छंता वि य कुणंति अणुरायं ।
सेवंति आयरेण य अलद्धपुव्वं ति मण्णंता।। (द्वा० अ० ८६)
इस प्रकार शरीर को प्रत्यक्ष अशुचि देखता हुआ भी आश्चर्य है कि यह मनुष्य उसमें अनुराग करता है और उसे अपूर्वलब्ध मानता हुआ आदरपूर्वक इसकी सेवा करता है।
८. जो परदेहविरत्तो णियदेहे ण य करेदि अणुरायं । ___ अप्पसरूवसुरत्तो असुइत्ते भावणा तस्स।। (द्वा० अ० ८७)
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तुलना करें मू० ८४६ : अट्ठिणिछण्णं णालिणिबद्धं कलिमलभरिदं किमिउलपुण्णं। मंसविलित्तं तयपडिछण्णं सरीरघरं तं सददमचोक्खं ।।