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महावीर वाणी माता, पिता, सहोदर भ्राता, पुत्र, स्त्री आदि बन्धुओं का समूह जीव के साथ सम्बद्ध नहीं है। ये सब अपने-अपने कार्यवश होते हैं। ५. अण्णं इमं सरीरादिगंपिजं होज्ज बाहिरं दव्वं ।।
णाणं दसणमादा एवं चिंतेहि अण्णत्तं ।।' (कुन्द० अ० २३)
ये शरीर आदि जो बाह्य द्रव्य हैं, वे सब मुझसे अन्य हैं । आत्मज्ञान और दर्शनरूप है, सुज्ञ इस प्रकार अन्यत्व का चिन्तन करता है। ६. अण्णं देहं गिण्हदि जणणी अण्णा य होदि कम्मादो।
अण्णं होदि कलत्तं अण्णो वि य जायदे पुत्तो ।। (द्वा० अ० ८०)
जीव देह को ग्रहण करता है, वह अपने से अन्य है। माता भी अन्य है, स्त्री भी अन्य होती है, पुत्र भी अन्य उत्पन्न होता है। ये सब कर्म-सुयोग से होते हैं। ७. एवं बाहिरदव् जाणदि रूवादु अप्पणो भिण्णं।
जाणतो वि हु जीवो तत्थेव हि रच्चदे मूढो।। (द्वा० अ० ८१)
इस तरह जीव सब बाह्य वस्तुओं को अपने स्वरूप से भिन्न जानता है। ऐसा जानता हुआ भी यह मूढ़ जीव उन परद्रव्यों से ही राग करता है। यह बड़ी मूर्खता है। ८. जो जाणिऊण देहं जीवसरूवादु तच्चदो भिण्णं ।
अप्पाणं पि य सेवदि कज्जकरं तस्स अण्णत्तं ।। (द्वा० अ० ८२)
जो जीव तत्त्वतः देह को अपने स्वरूप से भिन्न जानकर आत्मस्वरूप का सेवन करता है, उसके अन्यत्व भावना कार्यकारिणी होती है।
६. अशुचि भावना १. इमं सरीरं अणिच्चं असुइं असुइसंभवं।
असासयावासमिणं दुक्खकेसाण भायणं ।। (उ० १६ : १२)
यह शरीर अनित्य है, अशुचिपूर्ण है और अशुचि से उत्पन्न है। यह शरीर आत्मरूपी पक्षी का अस्थिर आवास है और दुःख तथा क्लेशों का घर है। २. अद्धिं च चम्मं च तहेव मंसं पित्तं च सेंभं तह सोणिदं च। अमेज्झसंघायमिणं सरीरं पस्संति णिब्वेदगुणाणुपेही।।
(मू० ८४८)
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मू० ७०२।