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३१. भावनायोग
१०. सव्वायरेण जाणह इक्कं जीवं सरीरदो भिण्णं । जम्हि दु मुणिदे जीवो होदि असेसं खणे हेयं । ।
११. एक्कोहं णिम्ममो सुद्धो णाणदंसणलक्खणो ।
सुद्धेयत्तमुपादेयमेवं
संजदो ||
शरीर से भिन्न अकेले जीव को सब प्रकार के प्रयत्न से जानो । जीव को जान लेने पर अवशेष सब प्रकार के द्रव्य क्षण मात्र में त्यागने योग्य होते हैं।
चिंतेइ
(कुन्द० अ० २०)
संयमी पुरुष ऐसा विचारता है कि मैं एकांकी हूँ, ममत्व से रहित हूँ, शुद्ध हूँ, सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान मेरे लक्षण हैं। ऐसा शुद्ध एकत्व ही उपादेय है ।
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५. अन्यत्व भावना
१. तं इक्कगं तुच्छसरीरगं से चिईगयं डहिय उ पावगेणं । भज्जा य पुत्ताविय नायओ य दायारमन्नं अणुसंकमंति ।। (उ० १३ : २५)
मनुष्य के चितागत अकेले तुच्छ शरीर को अग्नि से जलाकर उसकी भार्या, पुत्र और जाति - बान्धव किसी अन्य दाता के पीछे चले जाते हैं।
२. दाराणि य सुया चेव मित्ता य तह बंधवा । जीवंतमणुजीवंति मयं नाणुव्वयंति य । । '
१.
( द्वा० आ० ७९ )
( उ० १८ : १४)
स्त्रियां और पुत्र, मित्र और बांधव जीवित व्यक्ति के साथ जीते हैं। मृतक के पीछे नहीं जाते।
३. नीहरंति मयं पुत्ता पियरं परमदुक्खिया । पियरो वि तहा पुत्त बन्धू रायं ! तवं चऐ ।।
(उ०१८ : १५)
जैसे अत्यन्त दुखी हुए पुत्र मृत पिता को श्मशान ले जाते हैं, वैसे ही पिता भी मरे पुत्रों को श्मशान ले जाता है । बान्धवों के विषय में भी यही बात है। हे राजन् ! यह देखकर तू तप कर ।
४. मादा पिदर-सहोदर - पुत्त कलत्तादिबंधुसंदोहो ।
जीवस्स ण संबंधो णियकज्जवसेण वट्टंति । ।
मू० ७०० :
मादुपिदु सयण संबंधिणो य सव्वेवि अत्तणो अण्णे ।
इह लोग बंधवा ते ण य परलोगं समा णेंति ।।
(कुन्द० अ० २१)